सोमवार, 14 दिसंबर 2009
गरीब इंडिया और भारत के बीच पिस रहा है.एक तरफ भूमंडलीकरण तो दूसरी तरफ सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र ) दोनों के बीच किसानो के आवाज दबती जा रही है .
क्या केवल आर्थिक रूप से समृध्ह होना और विकसीत देश बनने की होड़ में शामिल होना कई बड़ी समस्याओं को जन्म नही दे रहा .महंगाई का बढ़ते चले जाना मान्य हो गया है .मध्यम वर्ग तो फिर भी किसी तरह गुजारा कर ले रहा है पर उन गरीबो का क्या जो दो वक़्त की रोटी भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाते हैं.
गुरुवार, 10 दिसंबर 2009
शांति के दूत
उस देश के राष्ट्राध्यक्ष को
जिसने विश्व में हर तरफ तबाही मचा रखी है.
जिसने हमेशा दो पडोसी देशों को लड़ाया है.
आतंकवाद को बढ़ावा दिया है.
मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009
महिला सशक्तिकरण
तालियों की गडगडाहट के बीच लंबे -चौडे भाषण
अतीत का दुःख तथा भविष्य के सपने
वर्तमान का पता नही .......
इसके [ वर्तमान ] अतिरिक्त न जाने क्या-क्या
क्या बदला हमारे बीच ,कुछ नही .......
सब पुराने ढर्रे पर ....
हाँ ,दिवस में एक नाम और जुड़ गया
मिल गए घंटों परिचर्चा के ,बहसों के ...
चाय की चुस्कियों के ...
जिनकी समस्या वही नदारद
वो जिनकी पैदावार ही इसलिए होती है
की ........वे रसोई और बिस्तर से ज्यादा न सोचें
वंश बढाये और अपने बनाये खाने की तारीफ़ सुने
और मान लें की इससे ज्यादा प्रशंसा
किसी चीज़ से नही मिल सकती
किसी भी चीज़ से नही ........
सशक्त महिलाओं की सभा समाप्त
वे लौट पड़ी .............
अगली बार फ़िर
सशक्तिकरण दिवस
सशक्त तरीके से मनाने का प्रण लेकर.
शुक्रवार, 4 सितंबर 2009
आतंकवाद
क्या किया हमने ?
हर हमले के बाद ...
कुछ मोमबत्तिया जलाई
चंद फूल चढाये/मृतकों की याद में
मिनट दो मिनट मौन रखा
मानव श्रंखला बनाई
सब किया
पर सबक नही लिया ...
सोमवार, 17 अगस्त 2009
बारिश
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
रविवार, 26 जुलाई 2009
बुधवार, 22 जुलाई 2009
विरासत
क्या यही बच्चो में विरासत बाटेंगे
पीने को पानी ,न होगा खाने को निवाला
सूरज की तपिश से नदिया हो जाएँगी नाला
धरती के पाँव में फटी होगी बेवाई
बंजर होंगे खेत ,न होगी बुवाई
रेत के समंदर और धूप के थपेडे होंगे
आगे जाके बच्चो को फास्टफूड ही लेने होंगे
पशु-पक्षियों से वीरान हो जायेगी धरती
जितनी ही आमद होगी उतनी ही बढेगी कड़की
सोमवार, 20 जुलाई 2009
लेखन के शुरुआती दौर की अपरिपक्व रचना
आज-कल के लड़को की ख्वाहिश यही ...
कि बाइक पर बैठेगी लड़की वही
जिसने पहनी होगी जींस और शार्ट स्कर्ट
वो बन जाएगी लव इनका फर्स्ट ।
कितनी बदल जायेगी ये धारणा तब
आएगी घर में अर्धांगिनी जब
वही लड़के जिन्हें चाह थी
जींस और शार्ट स्कर्ट की
करने लगेंगे बातें अब लज्जा और फ़र्ज़ की...
चाहेंगे की मेरे सिवा इसने ना चाहा हो
किसी और को
भले शादी के पहले वो घुमाते रहे हों किसी और को ।
शनिवार, 18 जुलाई 2009
बुधवार, 15 जुलाई 2009
दहेज़
रह गई दिल की तमन्नाएं/ दबी ही एक कोने में ,
बात शादी की थी /नही कोई ऐसी-वैसी
हाय ! ये समाज की विडम्बना है कैसी ,
दहेज़ के दावानल ने मुझे भी जलाया
पाकर मुझे अकेले में/ मेरी सास ने समझाया
अगर नही लाओगी/ रुपये लाख-दो लाख
तुम्हारा शरीर जल के हो जाएगा राख ...
सामर्थ्य था मेरे पिता में जितना/ उन्होंने दिया
बेच कर घर-बार अपना / मेरे घर को भर दिया
पर भाग्य को था शायद कुछ और ही मंजूर
मैंने ख़ुद को कर दिया आग के हवाले
अब समाज चाहे जितने लगाये नारे
कहा प्रभु से ....
अब न मानव बनाना
यदि दिया मानव जीवन तो
किसी गरीब की बेटी न बनाना .
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
क्रांति
बेजुबाँ होना सार्थक है /बोलने की अपेक्षा
बोलने का अर्थ है 'क्रांति'
जो किसी को स्वीकार्य नही[न व्यवस्था को ,न हमें]
रगों में ठंडे खून का रिसाव है
बोलना,सोचना,विचारना /सब एक चौराहे पर आकर रुक जाते हैं ....
उस बैल की तरह जो क्षमता से ज्यादा बोझ लादने के कारण
रास्तेमें ही दम तोड़ देता है ।
उत्तेजना शांत हो चुकी है साहस मिट चुका है
ग़लत पर सभी की 'मुहर' है
यथा यह होना ही था ।
कदम-ताल करते हुए यहाँ सब एक हैं .
ये वो लोग हैं जिनके पूर्वजों ने कभी क्रांति की थी
जिनमे विरोध का साहस था
ये बातें अब व्यर्थ हैं
सब बुरा देख तथा सुन सकते हैं
पर गाँधी के एक बंदर की तरह बोल नही सकते
क्यों की ..........
बेजुबाँ होना सार्थक है /बोलने की अपेक्षा
बोलने का अर्थ है क्रांति .
गुरुवार, 2 जुलाई 2009
विदा
हाँ वहीँ....
जहाँ हम मिले थे
पहली बार
इस तरह
की सदियों से मिलते रहे हों ।
इस तरह
सकुचाये से की ...
छुईमुई भी सहम जाए
आँखों में शर्म का झीना परदा लगाये
साथ न जाने कितने ही सुखद पल
और एहसास लिए हम
लम्हों में सदियों का साथ लिए हम
विदा हो गए .......
सदा के लिए ...........
शनिवार, 27 जून 2009
साथ
मैं और तुम किसी नदी के दो किनारे
जो मिल के भी नही मिलते
जी लेते हैं एक-दुसरे को देख कर
इस एहसास के साथ की हम दोनों साथ हैं
साथ हैं बस साथ होने के लिए
अपने-अपने टूटे सपनों को आंखों में लिए
फ़िर एक नया सपना देखते हैं
टूट जाने के लिए.
गुरुवार, 11 जून 2009
महिला आरक्षण के बहाने एक बहस
अरुणा आसफ अली जो स्वयं महिलाओं की कई संस्थाए चलाती थी ,इस बात की पक्षधर थीं की महिलाओं को कार्य-क्षेत्र में आरक्षण न दिया जाए.आरक्षण देने से उनमे प्रतियोगिता की भावना नही रहेगी।
आरक्षण एक बैसाखी की तरह है और मुझे नही लगता की हमें किसी बैसाखी की जरुरत है .