सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

samiksha

'जब उठ जाता हूँ सतह से' में कई मनोभाव की कवितायेँ है.. महानगरीय जीवन की विवशता है 'जहाँ भीड़ का अकेलापन और एकांत में शोर ' है . 'जहाँ जिस कमरे में खिड़की है' कविता में ज़िन्दगी का कोलाहल है. आज की भाग दौड़ की ज़िन्दगी में संभव नहीं मन के भीतर झांक पाना एक अँधेरी दौड़ है जिस तरफ सब भागे जा रहे हैं। विचारों का खोखलापन है जिससे चेतना घुट रही है।
             अधिकांश कवितायेँ स्त्री केन्द्रित हैं।स्त्री-पुरुष के माध्यम से उनके अंतर्संबंधों को व्याख्यायित करती कवितायेँ हैं। इन कविताओं में पुरुष कहीं देह पर हावी है कहीं मन पर --
         खुबसूरत औरत का मूल्य होता है
         खुबसूरत औरतें नहीं शरीर होता है...
इस मूल्य का निर्धारण पुरुष ही करता है। कहीं प्रेमी  होकर तो कहीं पति होकर।  'हक़  था तुम्हारा ' ऐसी ही कविता है जहाँ परिवार के स्वरुप को बचाए रखना उसका कर्त्तव्य है। उसे सतत प्रयासरत रहना पड़ता है इस दिशा मे.
      'स्त्री की वास्तविक स्थिति का मंथन' में  स्त्री-विमर्श  पर व्यंग्य है ,जहाँ  मुक्ति का नाम देकर छलावा किया जा रहा है। स्त्री विमर्श का झंडा उठाये लोग ही सर्वाधिक शोषण करते मिल जायेंगे। स्वरूप भर बदला है , साध्य और साधन वही हैं। इसी तरह 'स्त्री सन्तति' कविता में स्त्री रूप में बसे उस शोषण तंत्र की चर्चा है जो पीढ़ियों से हस्तांतरित होती आयी है। कविताओं का अर्थ खोलने के लिए उन्हें बार-बार पढने की जरुरत होती है ,पर कवि ने बहुत सी कवितायेँ 'कहन शैली' में कह दिया है। जो भाव जैसा आया उसे वैसा ही व्यक्त कर दिया गया है,जान बूझ कर शब्द तलाशे नहीं गये।
'बहुत तेज़ हो रही थी बारिश' कविता में समाज में बढ़ रही संवेदनशीलता के कारणों को तलाशने की कोशिश है। कुछ ख़राब लोगों की वजह से एक-दूसरे की मदद करने की संभावना ख़त्म होती जा रही है। कई बार मदद करने वाले की नियत पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता है।
                                  कवि  के पास एक आईना है जिसमे वह बार-बार शक्ल देखता है 'जितनी बार देखता हूँ शीशे में अपनी शक्ल सुन्दर लगता है--लेकिन अपर्याप्त  ' .कभी वह दूसरों के  आईना न  देखने को उनकी निर्लज्जता से जोड़ते नज़र आते हैं. यानि समाज में संकोच कम हुआ है गलत कामों के प्रति। आईना  मुहावरे की तरह प्रयुक्त हुआ है। 
                      'दुःख दूर न हुए ' कविता में स्कूली लड़के से लेकर नौकरी पाए युवा के मनोभावों को व्यक्त किया गया है। किस तरह उम्र के हर पड़ाव पर जिंदगी की जद्दोजहद चलती रहती है। समय बदलने के साथ समस्याओं का स्वरूप भर बदलता है।  चिर स्थायी हैं समस्याएँ। शहरी जीवन के फ्रेम में सेट होना बेबसी है। किस्तों में जाती तनख्वाह और गाँव में बाट जोहती सपनीली आँखों के बीच तारतम्य बिठाना मुश्किल है।

साहित्य का सीधा सरोकार अनुभव से है। अनुभव का यह सिरा भीतर से बाहर तक है। कवि का अपना अनुभव है जो यथार्थ से जुड़ता है। आस-पास के रिश्ते इस यथार्थ का हिस्सा हैं।  रिश्तों की अहमियत  उनके पास रहने पर नहीं होती।  पिता अनायास ही शक्तिमान हो उठता है स्मृतियों में. मासूम सपनों  के बोझ से दबा पिता ...
                    जीते जी पिता को
                    नहीं समझ पाया जो
                आज तर्पण करते हुए कर रहा हूँ महसूस
                 कितना बेबस है पिता होना।

'  माँ को कभी सीरियसली लिया ही नहीं ' कविता में हालाँकि सीरियसली शब्द खटकता है। . लेकिन अंग्रेजी के शब्द इतने घुल-मिल गये हैं हिंदी से कि उन्हें अलग  कर चला नहीं जा सकता।  शब्द से इतर यह कविता आम संवेदना युक्त है. माँ सहजता से उपलब्ध होती है। उसका स्पर्श जीवन के कठिनतम क्षणों में राहत देता है।


'पाठक दंपत्ति बाज़ार में ' शीर्षक कविता महानगरीय जीवन की सच्चाई है। EMI के इस दौर में पत्नी को आकर्षित करता बाज़ार है तो पति का  उन इच्छाओं से पलायन है।  यह पलायन मज़बूरी भी  है.
निष्कर्षतः इस कविता संग्रह में पिता की बेबसी है तो बेटे की महानगरीय चिंता है। प्रेम, देह ,स्त्री ,जीवन-मूल्य और उन सबके बीच से गुजरती कविता है। इस संग्रह में नदी, कितना बेबस होना है पिता होना,पाठक दंपत्ति बाज़ार में , खुबसूरत औरत का शरीर खुबसूरत होता है आदि विशेष उल्लेखनीय कविताएँ  हैं.
( जैसा मैंने महसूस किया …अपनी समझ के अनुसार