मंगलवार, 1 जुलाई 2014

1931 से  2012 भारतीय सिनेमा ने एक लम्बा सफ़र तय किया है। ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्मों से लेकर रंगीन फिल्मों तक हर दशक में सिनेमा में परिवर्तन और विकास देखा जा सकता है।  राजकपूर के आकर्षण , देवानन्द के बहुआयामी अभिनय ,दिलीप कुमार की गंभीरता ,गुरुदत्त की बेहतरीन अदाकारी ,अमिताभ बच्चन का एंग्री यंगमैन अंदाज़ और सत्तर के दशक के सुपर स्टार राजेश खन्ना के  उत्कृष्ट अभिनय ने श्वेत-श्याम पर्दे से रंगीन पर्दे तक भारतीय सिनेमा को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया .
                      सौ वर्षों के गौरवशाली इतिहास में हिंदी सिनेमा विभिन्न चरणों से होकर गुजरा।  मूक फिल्म से सचल फिल्मों तक का सफर अपने आप में महत्वपूर्ण तथा युग परिवर्तन की तरह था।  दादा साहब फाल्के , बाबू राव पेंटर , जमशेद जी , अर्देशिर ईरानी आदि निर्देशकों ने फिल्म जगत को   ऊंचाईयां दीं। भारतीय सिनेमा की शुरुआत धुंडिराज गोविन्द फाल्के से हुई थी।  जिन्होंने भारतीय सिनेमा की नींव रखी।  'राजा हरिश्चंद्र' उनकी बनाई पहली भारतीय फिल्म थी। इस फिल्म ने अरबों रुपये के भारतीय फिल्म उद्योग को खड़ा करने का स्वप्न दिखाया।
                                    आज़ादी के बाद आये बदलाव को सिनेमा ने महसूस किया। संजीव श्रीवास्तव लिखते हैं -'' आज़ादी मिलने के साथ-साथ हिंदी सिनेमा स्वर्ण युग में प्रवेश कर गया। सिनेमा की स्वर्णिमता कई मायनों में साबित हुई। राजनीतिक  आज़ादी से स्वाभाविक तौर पर अभिव्यक्ति के माध्यमों में भी बदलाव आया। राष्ट्रीयता और सामाजिकता के दृष्टिकोण से तीसरे दशक का सिनेमा अन्तर्विलाप की अवस्था में देखा जाता है। परन्तु चौथे दशक तथा खासतौर पर स्वतंत्रता पश्चात सिनेमा की यह राजनीतिक और सामाजिक चेतना अत्यधिक मुखर और जागरूक हो जाती है। '' 1
                            सिनेमा के आरम्भ से ही इसका सम्बन्ध साहित्य से रहा है। सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर यह चर्चा स्वाभाविक है कि सिनेमा साहित्य से जुड़कर क्या कुछ अर्जित कर सका है। जिस तरह साहित्य की मुख्य विधा उपन्यास ने अपने आरंभिक चरण में समाज के नैतिक-सामाजिक पक्ष से जुड़कर खुद को समृद्ध किया , उसी तरह सिनेमा ने भी अपनी सामाजिक पक्षधरता स्पष्ट की। साहित्य ने समय-समय पर सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई है। सिनेमा के शुरुआत से ही महत्वपूर्ण कृतियों को सिनेमा के दर्शकों से जुड़ने का मौका मिलता रहा है। फ़िल्में सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम हैं।  अतः वे समाज के बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं।
                आदित्य विक्रम सिंह लिखते हैं - '' सिनेमा और साहित्य के बीच रिश्ते की शुरुआत सिनेमा के जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है।  सिनेमा  शुरूआती दौर में उसको विकसित बनाने में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आरंभिक दिनों में प्रायः फ़िल्मकार  लिए साहित्यिक कृतियों का सहारा लेते रहे।  उसका कारण  था कि फिल्म निर्माण के पीछे सिर्फ मनोरंजन नहीं था। बल्कि समाज को कुछ सार्थक सन्देश देना भी उनका लक्ष्य होता है। इसलिए हम देखते हैं कि शुरू के दिनों में सोद्देश्य तथा कला फिल्मों की बहुलता थी। ''2


                                        साहित्य ने हमेशा समाज के साथ संवाद स्थापित किया है। सिनेमा के माध्यम से यह संवाद और मुखरित रूप में व्यक्त हुआ है। भारत में फिल्मों की शुरुआत पौराणिक तथा सामाजिक फिल्मो से हुई। कुछ फिल्म निर्देशकों ने साहित्य प्रेमी तथा  रूचि रखने वालों को एक साझा मांचा दिया। 
                         फिल्मों ने साहित्यिक कृतियों को गीत , संगीत, दृश्य, भाषा, भाव आदि अनेक स्तरों पर सूक्ष्म प्रभावों के रूप में व्यक्त किया है।  साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों ने एक नए रचनात्मक लोक की सृष्टि की है। सिनेमा और साहित्य दोनों सृजन से जुड़े क्षेत्र हैं।  दोनों की विस्तृत परंपरा है। साहित्य और सिनेमा दोनों समाज को दिशा  देने वाले तथा उसके मूल्याँकन को कलात्मक रूप में  प्रस्तुत करने का   जरिया हैं। चीजों  देखकर सीखना आसान होता है तथा इसका प्रभाव भी व्यापक होता है। फिल्मों की महत्ता इस मायने में अधिक है। फ़िल्में तथा साहित्य दोनों ही  समाज सीधे जुड़े हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि दृश्य होने के कारण फिल्में ज्यादा आकर्षित करती हैं जबकि साहित्य वर्ग विशेष के पहुँच तक सीमित रह जाता है।
                                         सिनेमा की सबसे बड़ी खासियत उसकी सम्प्रेषणीयता है। वह बहुत बातों को ध्वनि तथा भावों के माध्यम से बिना कहे भी व्यक्त करने की क्षमता रखता है। 'मौन' भी सिनेमा की एक बड़ी अभिव्यक्ति है। लेकिन लेखक भाषा की असीम शक्ति के बावजूद उस मौन को शब्दों में ही व्यक्त कर पाता  है।
                           साहित्य और फिल्मों का ताना -बाना कई स्तरों पर अलग है। राही मासूम रज़ा का मानना अलग है।  वे साहित्य और सिनेमा के भेद को स्वीकार नहीं करते .वे लिखते हैं -'' सिनेमा साहित्य की एक विधा है। इस समय विचार का विषय यह है कि सिनेमा की पहुँच छपे हुए शब्द से अधिक है। उसके लिए हमारे बुद्धिजीवी कितना ही नाक-भौंह चढ़ायें ,साहित्य और समाजशास्त्र जैसे विभाग फिल्म जैसी ताकतवर साहित्यिक विधा की अनदेखी नहीं कर सकते। सिनेमा की शिक्षा और समझ  के लिए सिनेमा को साहित्य स्वीकार कर उसे साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल करना आवश्यक है। ''3
                                               किसी साहित्यिक कृति का फिल्म  रूप में उसके सफल निर्वहन को लेकर जवरीमल्ल पारख कहते हैं -'' यह प्रश्न पैदा होता है कि किसी साहित्यिक कृति के रूपांतरण के लिए फ़िल्मकार कितनी स्वतंत्रता ले सकता है। माध्यमों  भिन्नता के कारण  बदलाव अपरिहार्य हैं ,उनको तो स्वीकार करना ही होगा। लेकिन फिल्मांकन कई बार अपने को ऐसे 'बदलाव' तक ही सीमित नहीं रखते। सत्यजित  रे ने शतरंज के खिलाड़ी में अर्थ आरोपित किया है। संभव है कि सत्यजित  रे का दृष्टिकोण 'शतरंज के खिलाड़ी ' की कथा प्रेमचंद की रचना नहीं रह जाती। प्रत्येक साहित्यिक कृति विशेष कालखण्ड की उपज होती है और उनमे वर्णित 'देशकाल'भी विशेष होता है। कृति का अर्थ इन्हीं से निर्धारित होता है। फिल्म में रूपान्तरण करते हुए अगर इन दोनों बात की रक्षा नहीं की जाती है तो रचना का लेखकीय अर्थ अक्षुण्ण नहीं रह पायेगा। ''4
 
 लेकिन इसके उलट सत्यजित रे का 'शतरंज के खिलाड़ी ' को लेकर अलग नजरिया है। सत्यजित रे  bls vius fy, pqukSrh ekurs gq, dgrs gSa&^^e/; mUuhloha lnh esa ?kfVr bl leL;k ls fHkM+uk vkSj dnkfpr lelkef;d n`f"V ls ns[kuk vkSj lelkef;d igyw ls ij[kuk cM+k fnypLi gSA iqLrd ls mrkjdj egt mls lsY;qykbV ij jp nsuk Hkj ugha gSA og esjs ml O;fDrRo ls Nudj gqbZ iqujZpuk gS] tks e/; chloha lnh dk O;fDrRo gSA''5
साहित्यिक कृतियों की उपस्थिति सिनेमा में भले ही कम रही हो ,फिर भी इनपर बनी फ़िल्में सिनेमा के इतिहास में जरूर दर्ज़ हुई हैं। किसी सफल साहित्यिक कृति पर आवश्यक नहीं की सफल फिल्म बने। ओम थानवी लिखते हैं -
'' प्रेमचंद की कृतियों पर बनी फिल्मों के दौर में ही अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, सुदर्शन, सेठ गोविंददास, होमवती देवी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी और आचार्य चतुरसेन की रचनाओं पर भी फिल्में बनीं। वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर दो-दो बार। आम तौर वे सब साधारण फिल्में थीं। ''6 
साहित्य पर आधारित फिल्मों को लेकर यह प्रश्न बराबर उठता रहा है कि  फिल्म में कृति के साथ न्याय नहीं हुआ। प्रकाश झा कहते हैं - "ये अलग-अलग लोगों की सोच और सृजनशीलता पर निर्भर करता है कि वो चाहे इतिहास हो या साहित्य, विषय से कितनी सिनेमाई आज़ादी ले सकता है."7 (bbc hindi )
ओम थानवी भी इसी ओर इशारा करते है -'' एक फिल्मकार किसी कहानी, उपन्यास या नाटक पर हमेशा इसलिए फिल्म नहीं बनाता कि उसे फिल्म की पटकथा के लिए बना-बनाया कथा-सूत्र चाहिए। इसके लिए उसे बेहतर लोकप्रिय चीजें -- गुलशन नंदा से लेकर चेतन भगत तक ढेर उदाहरण मिल जाएंगे -- मिल सकती हैं। साहित्यिक कृति को चुनने में ही गंभीर सृजन के प्रति उसका सम्मान जाहिर हो जाता है; अगर लेखक का भी भरोसा उसमें हो तो अपनी कृति उसे फिल्मकार के विवेक पर छोड़ देनी चाहिए। वह परदे पर संवर भी सकती है, बिगड़ भी सकती है।
हम इस बात का खयाल रखें कि किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म उसके पाठकों का विस्तार करने के लिए नहीं बनाई जाती। न इसलिए कि जिन तक लेखनी न पहुंच सके, चाक्षुष रूप में फिल्म पहुंच जाए।''8
हिंदी की कुछ महत्वपूर्ण कृतियों को लेकर फिल्में बनी हैं -
                                  तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम फणीश्वरनाथ रेणु के प्रथम कहानी संग्रह से ली गयी थी। इस कहानी की पृष्ठभूमि आंचलिक है। हिरामन तथा हीराबाई के अव्यक्त प्रेम को लोक सांस्कृतिक पक्ष के माध्यम से दिखाया गया है। डायरेक्टर बासु भट्टाचार्य ने भाषा के स्तर पर फिल्म में मूल कहानी को ज्यों का त्यों रखा गया है। व्यावसायिकता की दृष्टि से तो यह फिल्म सफल है ही. क्लासिक फिल्मों की श्रेणी में रखी जाती है।
                             शिवमूर्ति की तिरिया चरित्तर नामक कहानी पर डायरेक्टर बासु चटर्जी ने फिल्म बनाई। गंभीर तथा प्रभावी किरदारों (ओमपुरी ,राजेश्वरी ,नसीरुद्दीन शाह )  बावजूद भी कहानी के साथ पूर्ण न्याय नहीं हुआ। स्त्री शोषण पर केंद्रित कहानी फिल्म से ज्यादा प्रभावी है।
                    प्रेमचंद के उपन्यास गोदान पर आधारित फिल्म भी कोई खास प्रभाव दर्शकों पर न छोड़ सकी। राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर बनी फिल्म ने कथानक को वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया। यह कला फिल्म की श्रेणी में आती है . कमलेश्वर के उपन्यास एक सड़क सत्तावन गलियाँ पर प्रेम कपूर ने बदनाम बस्ती नामक फिल्म बनाई।
              उपन्यास तथा कहानियों को लेकर और भी फ़िल्में बनी -रजनीगंधा-मन्नू भंडारी -यही सच है ,आँधी -कमलेश्वर -काली आँधी ,चरणदास चोर: विजयदान देथ. ब्लैक फ्राइडे-एस हुसैन जैदी -ब्लैक फ्राइडे द ट्रू स्टोरी ऑफ़ बॉम्बे ब्लास्ट्स जैसी अंग्रेजी नोवेल्स पर आधारित फिल्में भी आयी।  इधर चेतन भगत के उपन्यासों को भी हिंदी सिनेमा में पर्याप्त जगह मिली है।

बीसवीं शताब्दी में भारतमें  तेजी से बदलाव हुए । लगातार भारतीय समाज खुद को नए सांचे में ढालता गया। ऐसे में सिनेमा का बदलना लाजमी था , जो हुआ भी। हां यह सच है कि बदलाव में सिनेमा गांव, समाज से कटकर कुछ ज्यादा ही व्यावसायिक हो गया . व्यावसायिक फिल्मों  प्रचलन बढ़ने के कारण धीरे-धीरे फिल्मों की सोद्देश्यता सीमित होती गयी। अर्थपूर्ण फिल्मों की जगह व्यावसायिक फिल्मों ने ले ली। सीमित साधन और कम  तामझाम का प्रयोग करने वाली अर्थपूर्ण फ़िल्में 'कला फ़िल्में' मानी जाने लगीं थीं। तेजी से बदलते समय ने ऐसी फिल्मों को किनारे लगा दिया। आज के भाग-दौड़ के समय में हॉलीवुड की तर्ज़ पर टेक (tech) प्रेमी फिल्मों को लेकर प्रयोग हुए।  हालांकि भारत जैसे विविधता से भरे देश में अब भी भावना प्रधान फ़िल्में ही सफल हो रही हैं। रा-वन , कृष3 , धूम 3 जैसी फिल्मों ने हॉलीवुड की प्रतिकृति (replica) बनने की कोशिश की। इन फिल्मों में अत्याधुनिक उपकरणों के प्रयोग तथा उत्कृष्ट प्रस्तुति ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है। लेकिन तकनीकी प्रभाव के कारण फिल्मों  में वह संवेदनशीलता नहीं रही ,जो पारिवारिक या सामाजिक फिल्मों में देखने को मिलती है।
                                                       हालांकि सच यह भी है कि समाज पहले की अपेक्षा तकनीक से लैस हुआ है। विकास के सोपान पर हर क्षेत्र ने उन्नति हासिल करने के अनुपात में कुछ न कुछ खोया ही है। आवश्यकता है कि तकनीक जीवन पर इतना न हावी हो जाये कि मानवीयता साइड लाइन हो जाये। आधुनिक साधनों के प्रयोग के बाद भी फिल्मों में जीवंतता बची रहनी चाहिए।

आजादी के बाद भारत को साम्प्रदायिकता विरासत में मिली। सिनेमा ने ने साम्प्रदायिकता का जबर्दस्त विरोध किया।वी शांताराम की फिल्म पडोसी में हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया गया, जो वक्त की जरूरत थी।बाम्बे’, ‘मिस्टर एण्ड मिस्टर अय्यर’ जैसी फिल्में बेहतरीन उदाहरण हैं.

भारत में उद्योग के रूप में फिल्म का क्षेत्र सफल है। हर वर्ष यहाँ करोड़ों रूपये का कारोबार होता है। भारत में  राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार भी है ,जिसकी स्थापना 1964 में हुई थी। इसका मुख्य कार्य सिनेमा की विरासत को सम्भालना तथा देश में एक स्‍वस्‍थ फिल्‍म संस्‍कृति के प्रसार के लिए एक केन्‍द्र के रूप में कार्य करना है। फिल्मों पर आधारित 25000 पुस्तकों तथा 100 से अधिक फ़िल्मी पत्रिकाएं देश-विदेश के फिल्म से जुड़े छात्रों के लिए वरदान है। भारतीय फिल्मों को देश -विदेश में काफ़ी पसंद किया जाता है। विदेशों से फिल्मों के अच्छे कलेक्शन से एक बात स्पष्ट  है कि भाषा के स्तर पर ये हिंदी के विस्तार का महत्वपूर्ण जरिया हैं। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में फिल्मों का बहुत बड़ा  योगदान है।

नब्बे के दशक में आये उदारीकरण ने सिनेमा को भी प्रभावित किया। बाज़ारवाद ,साम्प्रदायिकता ,आतंकवाद आदि पर केन्द्रित  फिल्में बनीं। इस दशक में परिवार ,परंपरा ,संस्कृति केंद्रित फ़िल्में बनीं। ये फ़िल्में न केवल भारतीयता से जुडी थीं बल्कि विदेशों में रह रहे भारतीयों को अपनी माटी की सुगंध बराबर पहुँचा रही थीं। बॉलीवुड ने  प्रवेश द्वार से होते हुए वैश्विक जगत में उपस्थिति दर्ज़ करायी।
                  
फ़िल्में समाज के बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं। 13 से 30 उम्र का वर्ग पहनावे , हाव-भाव आदि फिल्मों से सीखता है। फिल्म और फैशन जगत से जुड़े जी. वेंकटराम कहते हैं 'the marriage between films and fashion and social trends is never as close as in India' .गीतकार प्रसून जोशी  के मुताबिक, “भारतीय सिनेमा के 100 साल के सफ़र को मैं बड़ा सफ़र मानता हूँ. हमारा रहन सहन, कपड़ने पहनने का तरीका, बोलचाल, संस्कृति ...इन सब पर जितना असर फ़िल्मों ने डाला है उतना असर शायद किसी और चीज़ ने नहीं डाला. आज सिनेमा के बिना भारत की कल्पना करना मुश्किल है.'' (bbc hindi)  
                                 फिल्म जगत अपने ग्लैमर तथा व्यावसायिक विस्तारीकरण के कारण हमेशा से प्रभावी रहा है। भारतीय सिनेमा में राजनीति ,दैनिक संदर्भ ,पर्यटन , विषयगत नवीनता ,नायक को आइकन के रूप में प्रस्तुत करने का क्रम लगातार जारी है। विक्की डोनर के निर्माता सुजित सरकार कहते हैं  'indian cinema welcoming real and new role-casts for its stereotyped characters.'
                              
        लगान , ज़ुबैदा ,ग़दर ,देवदास ,पिंज़र ,मक़बूल ,चक दे इंडिया ,तारे ज़मीं पर ,पान सिंह तोमर आदि फिल्मों ने श्रेष्ठता के पैमाने पर खुद को साबित किया तथा विश्व सिनेमा में एक अलग मक़ाम बनाया। इक्कीसवी सदी के स्क्रिप्ट ने फिल्मों में आये बड़े बदलाव को महसूस किया।  इक़बाल (2005), बुधवार (2008), देव डी (2009), पिपली लाइव (2010)  उड़ान (2010) जैसी फिल्मों ने सिनेमा को कुछ अतिरिक्त देने की कोशिश की। यह अलग तरह की फ़िल्में थीं जो विचारोत्तेजक और जागरूक सिनेमा की परिचायक थीं। इन्हें प्रयोगात्मक फिल्में  भी कहा जा सकता है। जो भारतीय सिनेमा के सकारात्मक बदलाव की ओर  इशारा कर रही हैं।

                अनुराग कश्यप  भारतीय सिनेमा के भविष्य को लेकर बहुत आशान्वित हैं. अनुराग कहते हैं, “सिनेमा का भविष्य अच्छा ही नज़र आ रहा है. पूरे भारत भर में अब जिस तरह की फिल्में बनने लगी हैं वो बहुत प्रगतिशील हैं चाहे वो मराठी, तमिल या तेलगु फिल्में हों. अब तक हम बंधे हुए थे लेकिन अब हम लोग और हमारा सिनेमा खुल रहा है, आज़ाद हो रहा है. आगे जो भी होगा अच्छा ही होगा.” bbc(hindi)
                                               'growing old  is manadatory while growing up is optional .'आज के भारतीय सिनेमा  संदर्भ   कथन उलट जाता है।  बड़ी उम्र के अभिनेता अब भी अपना बेस्ट शॉट देने  तत्पर हैं। अनुराग बासु ,अनुराग कश्यप , अनुषा रिज़वी आदि नयी पीढ़ी के निर्देशकों ने यथार्थवादी तथा प्रेरणादायक फिल्मों का निर्माण किया। हिंदी सिनेमा विचार आधारित अर्थपूर्ण फिल्मों की ओर  अग्रसर है। जो भविष्य में फिल्म फ्रेटर्निटी को सफलता की नयी ऊँचाइयाँ दिलाएगा।

1-संजीव श्रीवास्तव -हिंदी सिनेमा का इतिहास -पृ. 3 -4
2-आदित्य विक्रम सिंह -हिंदी कहानियों का सिनेमाई रूपांतरण (शोध)-पृ. 131
3-प्रह्लाद अग्रवाल -हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक -पृ.368
4-ज्वरीमल्ल पारख -लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ -पृ. 210
5-हरीश कुमार -सिनेमा और साहित्य -पृ.122
6-ओम थानवी -जनसत्ता

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

आधा गाँव - विभाजन की त्रासदी

आधा गाँव 1947 के काल परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है।  स्वाभाविक है कि उस कालखण्ड की सामाजिक ,राजनैतिक चेतना उभरकर इस उपन्यास में आयी है। शिया मुसलमानों पर केंद्रित  उपन्यास स्वाधीनता आंदोलन तथा देश विभाजन का ऐतिहासिक साक्ष्य है। मूलतः यह एक आंचलिक उपन्यास है। जो उत्तर प्रदेश के गंगोली गाँव (जिला -गाजीपुर ) के भौगोलिक सीमा के इर्द गिर्द बुना गया है। 1947 में देश विभाजन की  भयावहता से गुजर रहा था।  आधा गाँव ऐतिहासिक दस्तावेज़ है  तत्कालीन राजनीतिक  यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई है।  यह उपन्यास अपने समय ,समाज तथा इतिहास की प्रक्रिया से गुजरता है। आधा गाँव राही मासूम रज़ा की रचनात्मक उपलब्धि है। गंगौली उनकी सांसों में जज़्ब है। जैसे इस उपन्यास के माध्यम से गंगौली को वे दुबारा जी लेना चाहते हैं। वे  कहते चलते हैं कि   तलाश में निकले हैं और उनका  गंगौली ठहरना  पर लिखे जाने वाले उपन्यास की  भूमिका मात्र है। '' यह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफ़र है।  मैं गाज़ीपुर की  तलाश में निकला हूँ ,लेकिन पहले मैं अपनी गंगौली में ठहरूंगा।  अगर गंगौली की हक़ीक़त पकड़ में आ गयी तो मैं गाज़ीपुर का 'एपिक' लिखने का साहस करूँगा। यह उपन्यास वास्तव में उस एपिक की  भूमिका है।  '' 1
 उपन्यास की  शुरुआत में 'ऊंघता शहर ' में लेखक का गंगौली के प्रति बेहद आत्मीय सम्बोधन है। लेखक ने पाठक को एक नज़र दी है कि उसे एक गुज़रते वक़्त की  उपस्थिति के तौर पर लिया जाये। '' यह कहानी न धार्मिक है न राजनीतिक क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक ..और यह कहानी है समय ही की यह गंगौली से गुज़रने  वाले समय की  कहानी है। '' 2 गंगौली में बिखरी अलग-अलग कथाओं को उन्होंने एक जगह एकत्र कर उसे आधा गाँव के रूप में प्रस्तुत किया है। 1966 में आया यह उपन्यास मुस्लिम जीवन की  त्रासदी पर आधारित है। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद मुसलमान भारत को अपना माने या पकिस्तान के हो जाएँ इस दुविधा में आधा गाँव के लोग जूझते रहे। यथार्थ पृष्ठभूमि और वास्तविक घटनाओं में रचे-बसे परत्र हर तरह से इस उपन्यास को मज़बूती प्रदान करते हैं। गंगौली गाँव में बसे काल्पनिक पात्र  उस गाँव के वातावरण में घुले-मिले हैं। आधा गाँव में आंचलिकता परोक्ष रूप से आयी है। भौगोलिकता के लिहाज़ से इसे आंचलिक उपन्यास की  श्रेणी में ही रखा जाता है पर विभाजन के समय मुसलमानों की  सब जगह यही स्थिति थी  चाहे गंगौली का हो या लखनऊ का।

'' कहीं इस्लामू  है कि हुक़ूमत बन जैयहे !ऐ भाई, बाप-दादा की  कबुुर हियाँ है, चौक इमामबाड़ा हियाँ है ,खेत -बाड़ी हियाँ है।  हम कोनो बुरबक हैं कि तोरे पकिस्तान ज़िंदाबाद में फंस जायँ ! ''
             '' अंग्रेजों के जाने  के बाद यहाँ हिंदुओं का राज होगा ! ''
हाँ हाँ त हुए बा। तू त ऐसा हिन्दू कहि  रहियो जैसे हिन्दुवा सब भुकाऊँ हैं कि काट लिहयन . अरे ! ठाकुर कुँवरपाल सिंह त हिन्दूए रहे। झिंगुरियो  हिन्दू है। ऐ भाई, ओ परसारमुवा हिन्दूए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन  कि हम हज़रत अली का ताबूत न उठे देंगे,काहे  को कि ऊ में शिआ लोग तबर्रा पढ़त हएं ,त  परसारमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई  ताबूत उट्ठी और ऊ ताबूत उट्ठा।  तोरे जिन्ना साहब हमारा ताबूत उठवाये न आये !'' 3  यह संवाद फुन्नन मियाँ  और समीउद्दीन खां के बीच  का है , यह दर्शाता है किगंगौली का बाशिंदा हिन्दू मुसलमान नहीं कर सकता।  धर्म के आधार पर बंटने के बजाय गंगौली की एकता ज्यादा मायने रखती है। साहित्य न  केवल समाज को प्रभावित करता है बल्कि उससे प्रभावित भी होता है। 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में रामचंद्र शुक्ल ने इसी ओर इशारा करते हुए लिखा है कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की  जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरुप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आधा गाँव एक तरह से समाज के उसी चित्तवृत्ति के प्रतिबिम्बन का फल है।  तत्कालीन सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक स्थितियों के प्रभाव से यह उपन्यास भी अछूता नहीं है।
                  आधा गाँव में दो-तीन बातें मुख्य रूप से आयी हैं। भारत विभाजन ,मुस्लिम समाज तथा विभाजन के समय का अंतर्द्वंद।  यह उपन्यास उस मनः स्थिति से गुजरने की  व्यथा के रूप में वर्णित है जो उस समय मुसलमानों के मन में उपजी थी। गंगौली में बढ़ रहे विभाजन को लेकर लेखक चिंतित है।  गाँव में शिया -सुन्नी -हिंदुओं की  संख्या बढ़ रही है ,गंगौली वालों की  संख्या कम होती जा रही है। लेखक अपने गाँव के बिखरते ताने-बाने से चिंतित है।  इस उपन्यास में लेखक ने परंपरा हुए बीच  में भूमिका लिखी है। यह महज़ भूमिका नहीं है ,लेखक कि अपने ज़मीं के प्रति गहरी संवेदना भी  है. यह पूरी भूमिका इस उपन्यास की  आत्मा है। '' गंगौली से मेरा सम्बन्ध अटूट है। वह एक गाँव ही नहीं है,वह मेरा घर भी है।  घर! यह शब्द दुनिया की हर बोली और भाषा में है और हर बोली और भाषा में यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है।  इसलिए मैं उस बात को फिर दुहराता हूँ। क्योंकि वह केवल एक गाँव  ही नहीं है। क्योंकि वह मेरा घर भी है। ''4 . यही बात वे अपने पात्रों  से भी कहलवाते हैं. तन्नू नामक पात्र कहता है -'' गंगौली मेरा गाँव है। मक्का मेरा शहर नहीं है। यह मेरा घर है और काबा अल्लाह मियां का। खुदा को  अगर अपने घर से प्यार है तो क्या वह मज़ल्ला यह नहीं समझ सकता कि हमें  अपने घर से उतना ही प्यार हो सकता है। '' 5 यह लेखक के भीतर का दर्द  था जो रह-रह के इस उपन्यास के पात्रों के माध्यम से व्यक्त हो रहा था।
  इस उपन्यास में जहाँ जहाँ बंटवारे की बात आयी है ,पात्रों का अंतर्द्वंद भी स्पष्ट हुआ है। मुसलमानों के अलग मुल्क की  बात आती है तो अपनी ज़मीन का मोह जाग उठता है। बार बार सवाल उठता है कि  अलग राष्ट्र बनने  की  स्थिति में भारत में रह रहे मुसलमानों का क्या होगा। राही मासूम रज़ा ने 1947 में वापस जाकर इन चीजों को समझने का प्रयास किया है। इस पूरी वैचारिक प्रक्रिया को उस समय में वापस जाकर ही समझा जा सकता था। अलग मुस्लिम राष्ट्र की  मांग के बावजूद गंगौली की  समरसता का चित्र वे कुछ इस प्रकार खींचते हैं -'' रजिये का जनाज़ा निकला तो ताबूत फुन्नन मियां,ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह ,झींगुरिया और अनवारुल हसन के कन्धों पर था और ठाकुर कुंवरपाल सिंह का सारा परिवार ज़नाजे के साथ। '' 6 दो राष्ट्रों के बीच  गंगौली के निवासी पिस  रहे हैं। समझ नही आ रहा गाँव वालों के कि पाकिस्तान बना तो गंगौली किस तरफ रहेगा। फुन्नन मियां सिर्फ़  इस्लामी राष्ट्र के नाम पर पाकिस्तान ज़िंदाबाद नहीं कहना चाहते क्योंकि उनकी जड़ें  गंगौली के ज़मीन  में धंसी हैं। फुन्नन मियां का चरित्र ऐसे ही  स्थानों पर उभर कर आया है। हम्माद और पृथ्वीपाल सिंह के विवाद में वे पृथ्वीपाल सिंह के साथ खड़े होते हैं और कहते हैं ''पट्टीदारी का मतलब एहे  है का कि हम्माद जुअन आफत चाहे जोत लें और सब उन्हई  का साथ दें! ई  हम  से ना  होई .''6 पृथ्वीपाल सिंह का साथ देने पर उन्हें पट्टीवालों ने टाट बाहर  कर दिया था। ये वही फुन्नन मियां हैं जिनका बेटा भारत छोडो आंदोलन में गोली का शिकार हुआ था। वे पाकिस्तान के हिमायती नही बल्कि वे 'पाकिस्तान-आकिस्तान पेट भरन का खेल है ' कहकर अपना पक्ष साफ रखते हैं।
आधा गाँव में लेखक ने दर्शाया है कि गाँव के मुसलमान और हिन्दू में खास फर्क न था। वे एक-दूसरे के समारोहों और सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल हुआ करते थे। आज़ादी की  लड़ाई में भी दोनों ने बराबर भागीदारी की थी। कुछ धार्मिक नेताओं और राजनीतिज्ञों ने धर्म के आधार पर दोनों में विभेद पैदा किया तथा स्वार्थ सिद्धि में लगे रहे। आज़ादी के बाद भारत में रह रहे मुसलमानों के साथ अस्तित्व का संकट पैदा होने लगा। जमींदारी प्रथा ख़त्म होने से एक तरफ आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ तो वहीँ दूसरी तरफ पाकिस्तान बनने के बाद वे भारत में अपनों के बीच  पराये हो गये।
                  राही मासूम रज़ा इस उपन्यास के जरिये अपने समय और समाज की जीवंत  तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। इतिहास में अपनी भागीदारी तलाशता ये उपन्यास हिंदी साहित्य की  बड़ी उपलब्धि है। आधा गाँव में वस्तुगत चिंतायें बेहद संजीदगी के साथ व्यक्त की  गयी हैं।  राही मासूम रज़ा हिंदी के  ऐसे उपन्यासकार  जिन्होंने साहित्य के माध्यम से सांप्रदायिक सदभाव को बल दिया।  उन्होंने कुल आठ उपन्यास लिखे और सभी में गंगा-जमुना तहज़ीब के प्रतीक को पुष्ट किया। प्रभाकर माचवे ने लिखा है कि यदि समस्त भारतीय भाषाओँ के साहित्य में से केवल दस उपन्यास  जाएँ तो हिंदी का प्रतिनिधित्व केवल 'आधा गाँव ' ही कर सकता है। आधा गाँव प्रेमचंद से एक कदम आगे की चीज़ है।  राही मासूम रज़ा ने देश विभाजन का दर्द झेल था। उन्हें सदैव इस बात का एहसास था कि हिन्दू -मुस्लमान के सौहार्द के बिना देश का समुचित विकास सम्भव नहीं है।



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शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

ओम प्रकाश वाल्मीकि :सलाम से आगे

ओम प्रकाश वाल्मीकि का  संग्रह 'सलाम' दलित जीवन का आईना  है .इस कहानी संग्रह में कुल चौदह कहानियाँ हैं। सलाम,बिरम की बहू ,पच्चीस चौका डेढ़ सौ इस संग्रह की चर्चित कहानियाँ  हैं। सभी कहानियों में उपेक्षित और वंचित दलित जीवन के विविध पक्षों को प्रस्तुत किया गया है।उन्होंने दलित जीवन के पीड़ा ,संत्रास और छटपटाहट ,जीवन की  विवशता को रचनात्मक रूप प्रदान किया। उन्होंने शोषित जन समूह के अस्मिता को उभारा और समाज की  विसंगतियों पर प्रहार किया।  ओम प्रकाश वाल्मीकि ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक आंदोलनों को साहित्यिक अभिव्यक्ति देने का महत्वपूर्ण काम किया। सभी कहानियाँ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सन्दर्भों के बीच रची गयी हैं। एक बड़े वर्ग का असंवेदनशील चेहरा इन कहानियों में उभर कर सामने आता है। बरसों की उपेक्षा से उपजी व्यथा को वाल्मीकि जी ने स्वर दिया है। दलित साहित्य उस सामन्तवादी व्यवस्था के खिलाफ़ उठ खड़ा हुआ , जो पीढ़ियों से एक वर्ग के लोगों को अछूत समझता रहा।  दलित साहित्य उन दमित लोगों की अस्मिता की पहचान है। दलित जीवन संघर्ष से उपजी मुक्ति की चेतना ने नयी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्ति दी। मानव विरोधी वर्ण व्यवस्था के परिणामस्वरूप साहित्य में नये नायकों का जन्म हुआ।
                                                                                इस  कहानी संग्रह की  पहली ही कहानी 'सलाम' उस सामंती सोच और व्यवस्था के ख़िलाफ़ है जो बरसों बरस से चली  रही है. वाल्मीकि जी का मानना था कि एक दलित ही दलित की पीड़ा को  समझ सकता है।  कुछ हद तक यह सच भी है क्योंकि समाज के तिरस्कार से उपजी पीड़ा की  अनुभूति शायद ही सवर्ण व्यवस्था का अंग बनकर किया जा सके। सलाम कहानी का पात्र हरीश जो पढ़ा लिखा युवक है तथा शहर से गाँव ब्याह के लिए आया है। वह गांव में घूम-घूम कर बड़े लोगों के दरवाजे जाकर सलाम करने के खिलाफ है। वह थोड़े से कपड़े ,बर्तन और नेग के लिए अपने स्वाभिमान को गिरवी नहीं रखना चाहता। उसे याद है कि जब भी उसने पहले किसी दूल्हे या दुल्हन को दरवाजे-दरवाजे घूमते देखा है तो उसके स्वयं के स्वाभिमान को ठेस पहुँची है। वाल्मीकि जी ने शहर और गाँव का फर्क भी दिखाया है।  शहर के लोग शिक्षित होने के कारण अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं। शहर से हरीश का दोस्त कमल भी साथ आया है।  गाँव आकर वह महसूस करता है कि अख़बारों में छपी दलित शोषण की  जिन घटनाओं पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ , वे सच में घटित होती हैं। दलित युवक को पीट -पीट  कर मार डाला गया या ऐसी ही अनेक घटनाएं अक्सर उसकी निगाहों से गुजरी हैं।  ऐसी ही एक घटना से वह खुद रुबरु हुआ ,जब एक सुबह वह चाय की  दुकान पर अपमानित किया गया। जाति विशेष के सम्बोधन से उसे गालियाँ दीं गयीं।  इस पूरी घटना को वाल्मीकि जी इस तरह लिखते हैं -'' कमल को लगा जैसे अपमान का घना बियाबान जंगल उग आया है। उसका रोम-रोम काँपने लगा। उसने आस-पास खड़े लोगों पर निगाह डाली। हिंसक शिकारी तेज़ नाखूनों से उसपर हमला करने की  तैयारी कर रहे थे। '' कमल की  गलती महज इतनी थी कि वो हरीश का दोस्त था. ब्राह्मण होने के वाबजूद वह कैसे एक दलित के घर रुक सकता है। अतः किसी ने उसकी बात का यकीन नहीं किया कि वह ब्राह्मण है। ओम प्रकाश वाल्मीकि ' युग चेतना ' नामक अपनी कविता में अपनी पीड़ा कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-- 
              इतिहास यहाँ नकली है
             मर्यादाएँ सब झूठी
             हत्यारों की  रक्तरंजित उँगलियों पर
             जैसे चमक रही
           सोने की  नग जड़ी अंगूठियाँ

हरीश के भीतर आक्रोश है।  वह कहता है - '' आप चाहे जो समझें .... मैं इस रिवाज को आत्मविश्वास  तोड़ने की साजिश मानता हूँ। यह ' सलाम ' की  रस्म बंद होनी चाहिए। '' समाज के कुछ बाहुबलि लोगों  द्वारा किया जाने वाला शोषण अब दलित वर्ग और नहीं सहेगा।  शक्ति प्रदर्शन की  यहाँ परंपरा ख़त्म  होनी चाहिए। हरीश का सलाम से इंकार पूरे  समाज को चुनौती है।  प्रतिरोध के लिए साहस की आवश्यकता होती है। यह साहस शिक्षा से आया है। वाल्मीकि जी ने यहाँ दिखाने की  कोशिश की  है कि शिक्षा एक ऐसा औज़ार है जिसके द्वारा जाति व्यवस्था की  बेड़ियों को काटा जा सकता है। दलित समाज अपने अधिकारों के प्रति तभी सचेत होगा जब वो शिक्षित हो।  सलाम कहानी में वे  जातिगत संस्कारों को तोड़ने की  बात करते हैं ,उसी के अंत में हिन्दू - मुसलमान के छुआछूत भेद को दिखाते हैं। सलाम करने न जाकर जिस हरीश को स्वाभिमान और आत्मविश्वास से भरा दिखाते हैं वही एक छोटे लड़के के ये  बोल सुनकर ' मैं मुसलमान के हाथ की बनी रोटी नहीं खाऊंगा ' हताश हो जाता है।  सम्भवतः लेखक ने इस कहानी के माध्यम से जाति के साथ-साथ धार्मिक भेदभाव की  समाज में गहरी पैठ की  ओर ईशारा किया है।
                                                    ओम प्रकाश वाल्मीकि का लेखन सामाजिक भेदभाव ,उत्पीड़न और आर्थिक विषमताओं के खिलाफ था। इस कहानी संग्रह की  सभी कहानियाँ वंचित वर्ग के शोषण की  गाथा है। जातिवाद के दोहरे मानदंडों पर भी सवाल उठाया है वाल्मीकि जी ने।'सपना' कहानी में मंदिर ,मस्जिद गुरुद्वारा के निर्माण की  योजना बनती है। बौद्धों की  संख्या अधिक होने के कारण बौद्ध विहार के लिए भी जगह आरक्षित कर दिया गया। सभी के निर्माण का काम शुरू हो गया सिवाय मंदिर के।  क्योंकि मंदिर में किस ईश्वर की स्थापना की जाय यही विवाद का विषय था। कोई शिव मंदिर तो कोई राम,कृष्ण या बजरंगबली का मंदिर बनवाना चाहता था। अंत में बाला जी का मंदिर बनना तय हुआ। वाल्मीकि जी यहाँ दिखाते हैं कि भारत में विविधता इंसानों में ही नहीं ,ईश्वर भी सबके अलग-अलग हैं। मंदिर निर्माण के हर काम में अनिल कुमार गौतम ऋषिराज का साथ दे रहा था। लेकिन प्राण-प्रतिष्ठा के समय उसे  पीछे बैठने को कहा जाता है. नटराजन गौतम को कहता है -'' वहाँ गेट के पास चले जाओ। जो भी भीतर आये उनसे जूते उतारने के लिए कहो।  जूते पहनकर कोई पंडाल में न आये और जूतों पर नज़र रखना ,ऐसे में जूता चुराने वाले मँडराते रहते हैं। '' गौतम जो मंदिर निर्माण के कामों में ऋषि के बराबर साथ रहा ,अचानक उसे उसकी जाति के आधार पर अलग कर दिया जाता है। ऋषि को ये बात अच्छी नहीं लगती।  वो इस बात का विरोध करता है -'' जब वह दिन-रात अपना खून पसीना बहा रहा था ,इस मंदिर को खड़ा करने में , तब आप नहीं जानते थे कि वह एस सी है। तब आपने क्यों नहीं कहा कि जो एस सी है वो मंदिर के काम में हाथ न बंटाये। इसके चूने -गारे में अपने जिस्म का पसीना न मिलाये ,क्यों नहीं आपने ऐलान किया कि जो ईंट किसी एस सी ने बनाई या पकाई है ,ट्रक में चढ़ाई या उतारी है ,वे ईंटें इस मंदिर में नहीं लगेंगी। '' मंदिर के भीतर इस तरह का भेदभाव पर बनाने के समय कोई छुआछूत नहीं। ऊँच नीच के ये विचार तथाकथित उच्च जातियों ने अपनी सुविधानुसार सृजित किये हैं।
               इस कहानी संग्रह में कई ऐसे भी पात्र हैं जो   वंचित होने के कारण वे समाज के घृणा और तिरस्कार के पात्र बने। जिन पर बिना गलती किये भी सज़ा थोप दी गयी। कहाँ जाये सतीश कहानी में सतीश की  गलती महज़ इतनी है कि वो दलित जाति का है। जब तक मिसेज़ पंत को ये पता नहीं था , उनकी बेटी सोनू ने सतीश को राखी बांधी  थी। पर अब वो एक पल भी सतीश को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी--'' हाँ … अब यही तो बचा है ,बाप-दादों की परंपरा ख़त्म कर दी। एक डोम को घर में रख लिया। सोनू तो उसका जूठा तक खा गई … मेरी तो समझ नहीं आ रहा कि प्रायश्चित कैसे होगा ....अगर मुझे पता होता तो घर में घुसने भी न देती उसे। जैसे वह वापस आएगा उसका सामान उठाकर बाहर फेंको। मुझे तो उसके कपड़ों से भी  बदबू आने लगी है। '' यह घृणा बेमतलब थी।  यह अधिकतर समाज की जड़ मानसिकता रही है जो इस कहानी के माध्यम से व्यक्त हुई है। गोहत्या कहानी का पात्र सुक्का  में विरोध का साहस न था। उसे सिर्फ शक के आधार पर पंचायत ने सजा सुना दी। वह कसम खाकर कहता रह गया कि उसने गौ हत्या नहीं की। जिसने कभी सूअर न मारा हो वह गौहत्या कैसे कर सकता है। सब इस सच से वाकिफ़ थे। पर पंचायत की  विरोध का साहस किसी में न था। निर्दयता की  हद ये कि हल में काम आने वाली लोहे की फाल को आग में तपाकर उसके हाथ में थमा दिया गया। सुक्का की सजा से पूरा गांव जैसे गोहत्या के पाप से मुक्त हो गया हो। 

इसलिए वे उस प्रताडना के शिकार हुए। ओम प्रकाश वाल्मीकि ने साहित्य में एक अपरिचित समाज का पक्ष रखा. इनकी आत्मकथा जूठन साहित्य में एक विस्फोट की  तरह आयी।  इस रोंगटे खड़े कर देने वाली आत्मकथा ने साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर  खींचा। इनकी कहानियों में भी अनुभव की  प्रमाणिकता तो है ही ,साहित्य में जिन मानवीय मूल्यों के स्थापना की  बात कही गयी है , उनकी स्थापना पर भी बल दिया गया है।
                              वाल्मीकि जी ने दलितों को लेकर भी प्रश्न उठाये हैं। अंधड़ कहानी के मिस्टर लाल अपने अतीत को भूल कर आगे बढ़ गये और उनकी परछाईयों से भी बचने की  कोशिश करते रहे।दीपचंद की मृत्यु ने मिस्टर लाल को भावुक कर दिया था। दीपचंद की  वजह से ही वे पढाई कर सके थे। उनके सहयोग की वजह से आज वे पूना के एक सरकारी संस्थान में वैज्ञानिक जैसे प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त थे। लेकिन वो  जीवन की  सच्चाईयों से पलायन करते रहे थे. पत्नी सविता को याद हो आया था कि कैसे वे  पूर्व में दीपचंद के घर जाने की  बात पर  बिफर पड़े थे -'' मैं जिस गंदगी से तुम्हे बाहर निकालना चाहता हूँ …तुम लौट लौटकर उसी में जाना चाहती हो। तुम वहाँ जाओगी ,तो वे भी यहाँ आयेंगे। मैं नहीं चाहता यहाँ लोगों को पता चले कि हम 'शेड्यूल्ड कास्ट' हैं। जिस दिन लोग ये जान जायेंगे ,यह मान-सम्मान सब घृणा-द्वेष में बदल जायेगा। '' मिस्टर लाल की आज की भावुकता देखकर सविता पति के दोहरेपन पर विस्मित थी।  यह कथन  आईना है दलित समाज का ,जिसके लिए आगे बढ़ जाने पर उसका अपना ही समाज घृणित हो जाता है। जो अपनी वास्तविकताओं और यथार्थ को छोड़कर छद्म जिंदगी जीने लग जाता है।  बेटी पिंकी के सवालों का कोई जवाब नहीं मिस्टर लाल के पास --'' आपने इनके लिए क्या किया ?आई थिंक यू हैव इग्नोर्ड देम.... आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था डैड। ''  यह कटाक्ष है . मिस्टर लाल अपने साथ अगर अपने समाज के कुछ और लोगों को लेकर आगे बढ़ते तो कुछ स्थिति सुधरती।
                  दलित लेखन और उनके साहित्यिक उभार ने परिवर्तनकामी समाज में एक तरह का अपराधबोध भी जागृत किया है। सामान्य वर्ग के वे लोग जो इस शोषणकारी व्यवस्था को बदलना चाहते हैं ,समाज के उस तबके के स्वर के साथ स्वर मिला रहे हैं।  जैसा की  वाल्मीकि जी ने भी अपनी कई कहानियों में दिखाया है। कमल और ऋषि ऐसे ही बदलाव के पक्षधर हैं। भूमण्डलीकरण के युग में परम्परा के अमानवीय पहलुओं को नकार कर ही इस जाति व्यवस्था में स्थानांतरण किया जा सकता है। शहरीकरण , राजनीतिक ,आर्थिक बदलावों के परिणामस्वरूप व्यक्ति चेतना का उदय हुआ है। पूर्व में हाशिये पर रहा समाज अब मुख्य धारा में शामिल हो रहा है।
       कवि ,कथाकार ,विचारक के तौर पर वाल्मीकि जी ने पीड़ित समुदाय की विसंगतियों पर भी मुखरता से लिखा। ताकि समाज में सामंजस्यपूर्ण  और गुणात्मक परिवर्तन किया जा सके। उन्होंने साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ा।   दलित जीवन की  ये कहानियाँ हमारे समाज की  तस्वीर हैं ,जिसे हम अनदेखा करते आये हैं। यह साहित्य में किसी विमर्श का विषय नहीं ,समाज में मानव मूल्यों की  स्थापना का विषय है। ओम प्रकाश वाल्मीकि के साहित्य में प्रश्नवाचकता है। जो साहित्य और समाज दोनों के लिए आवश्यक  है . इसलिए इन कथाओं को थमकर ठहर कर पढ़ना होगा ताकि वे मात्र साहित्यिक निधि न रहें बल्कि  समाज के भीतर परिवर्तन लाने  वाली तथा समतामूलक -न्यायसंगत व्यवस्था स्थापित करने में मददगार हो सकें। उन्होंने समाज और साहित्य के वर्चस्व को चुनौती देने का काम किया। उनका ऊर्जात्मक साहित्य आगे की पीढ़ियों के लिए मशाल का काम करेगा और नयी चेतना का वाहक बनेगा।