1931 से 2012 भारतीय सिनेमा ने
एक लम्बा सफ़र तय किया है। ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्मों से लेकर रंगीन फिल्मों
तक हर दशक में सिनेमा में परिवर्तन और विकास देखा जा सकता है। राजकपूर के
आकर्षण , देवानन्द के बहुआयामी अभिनय ,दिलीप कुमार की गंभीरता ,गुरुदत्त
की बेहतरीन अदाकारी ,अमिताभ बच्चन का एंग्री यंगमैन अंदाज़ और सत्तर के दशक
के सुपर स्टार राजेश खन्ना के उत्कृष्ट अभिनय ने श्वेत-श्याम पर्दे से
रंगीन पर्दे तक भारतीय सिनेमा को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया .
सौ वर्षों के गौरवशाली इतिहास में हिंदी
सिनेमा विभिन्न चरणों से होकर गुजरा। मूक फिल्म से सचल फिल्मों तक का सफर
अपने आप में महत्वपूर्ण तथा युग परिवर्तन की तरह था। दादा साहब फाल्के ,
बाबू राव पेंटर , जमशेद जी , अर्देशिर ईरानी आदि निर्देशकों ने फिल्म जगत
को ऊंचाईयां दीं। भारतीय सिनेमा की शुरुआत धुंडिराज गोविन्द फाल्के से
हुई थी। जिन्होंने भारतीय सिनेमा की नींव रखी। 'राजा हरिश्चंद्र' उनकी
बनाई पहली भारतीय फिल्म थी। इस फिल्म ने अरबों रुपये के भारतीय फिल्म
उद्योग को खड़ा करने का स्वप्न दिखाया। साहित्य और फिल्मों का ताना -बाना कई स्तरों पर अलग है। राही मासूम रज़ा का मानना अलग है। वे साहित्य और सिनेमा के भेद को स्वीकार नहीं करते .वे लिखते हैं -'' सिनेमा साहित्य की एक विधा है। इस समय विचार का विषय यह है कि सिनेमा की पहुँच छपे हुए शब्द से अधिक है। उसके लिए हमारे बुद्धिजीवी कितना ही नाक-भौंह चढ़ायें ,साहित्य और समाजशास्त्र जैसे विभाग फिल्म जैसी ताकतवर साहित्यिक विधा की अनदेखी नहीं कर सकते। सिनेमा की शिक्षा और समझ के लिए सिनेमा को साहित्य स्वीकार कर उसे साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल करना आवश्यक है। ''3
लेकिन इसके उलट सत्यजित रे का 'शतरंज के खिलाड़ी ' को लेकर अलग नजरिया है। सत्यजित रे bls vius fy, pqukSrh ekurs gq, dgrs gSa&^^e/; mUuhloha lnh esa ?kfVr bl leL;k ls fHkM+uk vkSj dnkfpr lelkef;d n`f"V ls ns[kuk vkSj lelkef;d igyw ls ij[kuk cM+k fnypLi gSA iqLrd ls mrkjdj egt mls lsY;qykbV ij jp nsuk Hkj ugha gSA og esjs ml O;fDrRo ls Nudj gqbZ iqujZpuk gS] tks e/; chloha lnh dk O;fDrRo gSA''5
साहित्यिक कृतियों की उपस्थिति सिनेमा में भले
ही कम रही हो ,फिर भी इनपर बनी फ़िल्में सिनेमा के इतिहास में जरूर दर्ज़
हुई हैं। किसी सफल साहित्यिक कृति पर आवश्यक नहीं की सफल फिल्म बने। ओम
थानवी लिखते हैं -
'' प्रेमचंद की कृतियों पर बनी फिल्मों के दौर में ही अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, सुदर्शन, सेठ गोविंददास, होमवती देवी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी और आचार्य चतुरसेन की रचनाओं पर भी फिल्में बनीं। वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर दो-दो बार। आम तौर वे सब साधारण फिल्में थीं। ''6
'' प्रेमचंद की कृतियों पर बनी फिल्मों के दौर में ही अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, सुदर्शन, सेठ गोविंददास, होमवती देवी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी और आचार्य चतुरसेन की रचनाओं पर भी फिल्में बनीं। वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर दो-दो बार। आम तौर वे सब साधारण फिल्में थीं। ''6
साहित्य
पर आधारित फिल्मों को लेकर यह प्रश्न बराबर उठता रहा है कि फिल्म में
कृति के साथ न्याय नहीं हुआ। प्रकाश झा कहते हैं - "ये अलग-अलग लोगों की
सोच और सृजनशीलता पर
निर्भर करता है कि वो चाहे इतिहास हो या साहित्य, विषय से कितनी सिनेमाई
आज़ादी ले सकता है."7 (bbc hindi )
ओम थानवी भी इसी ओर इशारा करते है -'' एक फिल्मकार किसी कहानी, उपन्यास या नाटक पर हमेशा इसलिए फिल्म नहीं बनाता कि उसे फिल्म की पटकथा के लिए बना-बनाया कथा-सूत्र चाहिए। इसके लिए उसे बेहतर लोकप्रिय चीजें -- गुलशन नंदा से लेकर चेतन भगत तक ढेर उदाहरण मिल जाएंगे -- मिल सकती हैं। साहित्यिक कृति को चुनने में ही गंभीर सृजन के प्रति उसका सम्मान जाहिर हो जाता है; अगर लेखक का भी भरोसा उसमें हो तो अपनी कृति उसे फिल्मकार के विवेक पर छोड़ देनी चाहिए। वह परदे पर संवर भी सकती है, बिगड़ भी सकती है।
हम इस बात का खयाल रखें कि किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म उसके पाठकों का विस्तार करने के लिए नहीं बनाई जाती। न इसलिए कि जिन तक लेखनी न पहुंच सके, चाक्षुष रूप में फिल्म पहुंच जाए।''8
ओम थानवी भी इसी ओर इशारा करते है -'' एक फिल्मकार किसी कहानी, उपन्यास या नाटक पर हमेशा इसलिए फिल्म नहीं बनाता कि उसे फिल्म की पटकथा के लिए बना-बनाया कथा-सूत्र चाहिए। इसके लिए उसे बेहतर लोकप्रिय चीजें -- गुलशन नंदा से लेकर चेतन भगत तक ढेर उदाहरण मिल जाएंगे -- मिल सकती हैं। साहित्यिक कृति को चुनने में ही गंभीर सृजन के प्रति उसका सम्मान जाहिर हो जाता है; अगर लेखक का भी भरोसा उसमें हो तो अपनी कृति उसे फिल्मकार के विवेक पर छोड़ देनी चाहिए। वह परदे पर संवर भी सकती है, बिगड़ भी सकती है।
हम इस बात का खयाल रखें कि किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म उसके पाठकों का विस्तार करने के लिए नहीं बनाई जाती। न इसलिए कि जिन तक लेखनी न पहुंच सके, चाक्षुष रूप में फिल्म पहुंच जाए।''8
हिंदी की कुछ महत्वपूर्ण कृतियों को लेकर फिल्में बनी हैं -
शिवमूर्ति
की तिरिया चरित्तर नामक कहानी पर डायरेक्टर बासु चटर्जी ने फिल्म बनाई।
गंभीर तथा प्रभावी किरदारों (ओमपुरी ,राजेश्वरी ,नसीरुद्दीन शाह ) बावजूद
भी कहानी के साथ पूर्ण न्याय नहीं हुआ। स्त्री शोषण पर केंद्रित कहानी
फिल्म से ज्यादा प्रभावी है।
प्रेमचंद के उपन्यास गोदान पर आधारित फिल्म भी कोई खास प्रभाव दर्शकों पर न
छोड़ सकी। राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर बनी फिल्म ने कथानक को
वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया। यह कला फिल्म की श्रेणी में आती है .
कमलेश्वर के उपन्यास एक सड़क सत्तावन गलियाँ पर प्रेम कपूर ने बदनाम बस्ती
नामक फिल्म बनाई।
उपन्यास तथा कहानियों को लेकर और भी फ़िल्में बनी -रजनीगंधा-मन्नू भंडारी -यही सच है ,आँधी -कमलेश्वर -काली आँधी ,चरणदास चोर: विजयदान देथ. ब्लैक
फ्राइडे-एस हुसैन जैदी -ब्लैक फ्राइडे द ट्रू स्टोरी ऑफ़ बॉम्बे ब्लास्ट्स
जैसी अंग्रेजी नोवेल्स पर आधारित फिल्में भी आयी। इधर चेतन भगत के
उपन्यासों को भी हिंदी सिनेमा में पर्याप्त जगह मिली है।
बीसवीं शताब्दी में भारतमें तेजी से बदलाव हुए । लगातार भारतीय समाज खुद को नए सांचे में ढालता गया। ऐसे में सिनेमा का बदलना लाजमी था , जो हुआ भी। हां यह सच है कि बदलाव में सिनेमा गांव, समाज से कटकर कुछ ज्यादा ही व्यावसायिक हो गया . व्यावसायिक फिल्मों प्रचलन बढ़ने के कारण धीरे-धीरे फिल्मों की सोद्देश्यता सीमित होती गयी। अर्थपूर्ण फिल्मों की जगह व्यावसायिक फिल्मों ने ले ली। सीमित साधन और कम तामझाम का प्रयोग करने वाली अर्थपूर्ण फ़िल्में 'कला फ़िल्में' मानी जाने लगीं थीं। तेजी से बदलते समय ने ऐसी फिल्मों को किनारे लगा दिया। आज के भाग-दौड़ के समय में हॉलीवुड की तर्ज़ पर टेक (tech) प्रेमी फिल्मों को लेकर प्रयोग हुए। हालांकि भारत जैसे विविधता से भरे देश में अब भी भावना प्रधान फ़िल्में ही सफल हो रही हैं। रा-वन , कृष3 , धूम 3 जैसी फिल्मों ने हॉलीवुड की प्रतिकृति (replica) बनने की कोशिश की। इन फिल्मों में अत्याधुनिक उपकरणों के प्रयोग तथा उत्कृष्ट प्रस्तुति ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है। लेकिन तकनीकी प्रभाव के कारण फिल्मों में वह संवेदनशीलता नहीं रही ,जो पारिवारिक या सामाजिक फिल्मों में देखने को मिलती है।
आजादी के बाद भारत को साम्प्रदायिकता विरासत में
मिली। सिनेमा ने ने साम्प्रदायिकता का जबर्दस्त विरोध किया।वी शांताराम की
फिल्म पडोसी में हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया गया, जो वक्त की जरूरत थी।बाम्बे’, ‘मिस्टर एण्ड मिस्टर अय्यर’ जैसी फिल्में बेहतरीन उदाहरण हैं.
नब्बे के दशक में
आये उदारीकरण ने सिनेमा को भी प्रभावित किया। बाज़ारवाद ,साम्प्रदायिकता
,आतंकवाद आदि पर केन्द्रित फिल्में बनीं। इस दशक में परिवार ,परंपरा
,संस्कृति केंद्रित फ़िल्में बनीं। ये फ़िल्में न केवल भारतीयता से जुडी थीं
बल्कि विदेशों में रह रहे भारतीयों को अपनी माटी की सुगंध बराबर पहुँचा रही
थीं। बॉलीवुड ने प्रवेश द्वार से होते हुए वैश्विक जगत में उपस्थिति दर्ज़
करायी।
फिल्म जगत अपने ग्लैमर तथा व्यावसायिक विस्तारीकरण के कारण हमेशा से प्रभावी रहा है। भारतीय सिनेमा में राजनीति ,दैनिक संदर्भ ,पर्यटन , विषयगत नवीनता ,नायक को आइकन के रूप में प्रस्तुत करने का क्रम लगातार जारी है। विक्की डोनर के निर्माता सुजित सरकार कहते हैं 'indian cinema welcoming real and new role-casts for its stereotyped characters.'
अनुराग कश्यप भारतीय सिनेमा के भविष्य को लेकर बहुत आशान्वित हैं. अनुराग कहते हैं, “सिनेमा का भविष्य अच्छा ही नज़र आ रहा है. पूरे भारत भर में अब जिस तरह की फिल्में बनने लगी हैं वो बहुत प्रगतिशील हैं चाहे वो मराठी, तमिल या तेलगु फिल्में हों. अब तक हम बंधे हुए थे लेकिन अब हम लोग और हमारा सिनेमा खुल रहा है, आज़ाद हो रहा है. आगे जो भी होगा अच्छा ही होगा.” bbc(hindi)
1-संजीव श्रीवास्तव -हिंदी सिनेमा का इतिहास -पृ. 3 -4
2-आदित्य विक्रम सिंह -हिंदी कहानियों का सिनेमाई रूपांतरण (शोध)-पृ. 131
3-प्रह्लाद अग्रवाल -हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक -पृ.368
4-ज्वरीमल्ल पारख -लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ -पृ. 210
5-हरीश कुमार -सिनेमा और साहित्य -पृ.122
6-ओम थानवी -जनसत्ता
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