मंगलवार, 1 जुलाई 2014

1931 से  2012 भारतीय सिनेमा ने एक लम्बा सफ़र तय किया है। ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्मों से लेकर रंगीन फिल्मों तक हर दशक में सिनेमा में परिवर्तन और विकास देखा जा सकता है।  राजकपूर के आकर्षण , देवानन्द के बहुआयामी अभिनय ,दिलीप कुमार की गंभीरता ,गुरुदत्त की बेहतरीन अदाकारी ,अमिताभ बच्चन का एंग्री यंगमैन अंदाज़ और सत्तर के दशक के सुपर स्टार राजेश खन्ना के  उत्कृष्ट अभिनय ने श्वेत-श्याम पर्दे से रंगीन पर्दे तक भारतीय सिनेमा को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया .
                      सौ वर्षों के गौरवशाली इतिहास में हिंदी सिनेमा विभिन्न चरणों से होकर गुजरा।  मूक फिल्म से सचल फिल्मों तक का सफर अपने आप में महत्वपूर्ण तथा युग परिवर्तन की तरह था।  दादा साहब फाल्के , बाबू राव पेंटर , जमशेद जी , अर्देशिर ईरानी आदि निर्देशकों ने फिल्म जगत को   ऊंचाईयां दीं। भारतीय सिनेमा की शुरुआत धुंडिराज गोविन्द फाल्के से हुई थी।  जिन्होंने भारतीय सिनेमा की नींव रखी।  'राजा हरिश्चंद्र' उनकी बनाई पहली भारतीय फिल्म थी। इस फिल्म ने अरबों रुपये के भारतीय फिल्म उद्योग को खड़ा करने का स्वप्न दिखाया।
                                    आज़ादी के बाद आये बदलाव को सिनेमा ने महसूस किया। संजीव श्रीवास्तव लिखते हैं -'' आज़ादी मिलने के साथ-साथ हिंदी सिनेमा स्वर्ण युग में प्रवेश कर गया। सिनेमा की स्वर्णिमता कई मायनों में साबित हुई। राजनीतिक  आज़ादी से स्वाभाविक तौर पर अभिव्यक्ति के माध्यमों में भी बदलाव आया। राष्ट्रीयता और सामाजिकता के दृष्टिकोण से तीसरे दशक का सिनेमा अन्तर्विलाप की अवस्था में देखा जाता है। परन्तु चौथे दशक तथा खासतौर पर स्वतंत्रता पश्चात सिनेमा की यह राजनीतिक और सामाजिक चेतना अत्यधिक मुखर और जागरूक हो जाती है। '' 1
                            सिनेमा के आरम्भ से ही इसका सम्बन्ध साहित्य से रहा है। सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर यह चर्चा स्वाभाविक है कि सिनेमा साहित्य से जुड़कर क्या कुछ अर्जित कर सका है। जिस तरह साहित्य की मुख्य विधा उपन्यास ने अपने आरंभिक चरण में समाज के नैतिक-सामाजिक पक्ष से जुड़कर खुद को समृद्ध किया , उसी तरह सिनेमा ने भी अपनी सामाजिक पक्षधरता स्पष्ट की। साहित्य ने समय-समय पर सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई है। सिनेमा के शुरुआत से ही महत्वपूर्ण कृतियों को सिनेमा के दर्शकों से जुड़ने का मौका मिलता रहा है। फ़िल्में सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम हैं।  अतः वे समाज के बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं।
                आदित्य विक्रम सिंह लिखते हैं - '' सिनेमा और साहित्य के बीच रिश्ते की शुरुआत सिनेमा के जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है।  सिनेमा  शुरूआती दौर में उसको विकसित बनाने में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आरंभिक दिनों में प्रायः फ़िल्मकार  लिए साहित्यिक कृतियों का सहारा लेते रहे।  उसका कारण  था कि फिल्म निर्माण के पीछे सिर्फ मनोरंजन नहीं था। बल्कि समाज को कुछ सार्थक सन्देश देना भी उनका लक्ष्य होता है। इसलिए हम देखते हैं कि शुरू के दिनों में सोद्देश्य तथा कला फिल्मों की बहुलता थी। ''2


                                        साहित्य ने हमेशा समाज के साथ संवाद स्थापित किया है। सिनेमा के माध्यम से यह संवाद और मुखरित रूप में व्यक्त हुआ है। भारत में फिल्मों की शुरुआत पौराणिक तथा सामाजिक फिल्मो से हुई। कुछ फिल्म निर्देशकों ने साहित्य प्रेमी तथा  रूचि रखने वालों को एक साझा मांचा दिया। 
                         फिल्मों ने साहित्यिक कृतियों को गीत , संगीत, दृश्य, भाषा, भाव आदि अनेक स्तरों पर सूक्ष्म प्रभावों के रूप में व्यक्त किया है।  साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों ने एक नए रचनात्मक लोक की सृष्टि की है। सिनेमा और साहित्य दोनों सृजन से जुड़े क्षेत्र हैं।  दोनों की विस्तृत परंपरा है। साहित्य और सिनेमा दोनों समाज को दिशा  देने वाले तथा उसके मूल्याँकन को कलात्मक रूप में  प्रस्तुत करने का   जरिया हैं। चीजों  देखकर सीखना आसान होता है तथा इसका प्रभाव भी व्यापक होता है। फिल्मों की महत्ता इस मायने में अधिक है। फ़िल्में तथा साहित्य दोनों ही  समाज सीधे जुड़े हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि दृश्य होने के कारण फिल्में ज्यादा आकर्षित करती हैं जबकि साहित्य वर्ग विशेष के पहुँच तक सीमित रह जाता है।
                                         सिनेमा की सबसे बड़ी खासियत उसकी सम्प्रेषणीयता है। वह बहुत बातों को ध्वनि तथा भावों के माध्यम से बिना कहे भी व्यक्त करने की क्षमता रखता है। 'मौन' भी सिनेमा की एक बड़ी अभिव्यक्ति है। लेकिन लेखक भाषा की असीम शक्ति के बावजूद उस मौन को शब्दों में ही व्यक्त कर पाता  है।
                           साहित्य और फिल्मों का ताना -बाना कई स्तरों पर अलग है। राही मासूम रज़ा का मानना अलग है।  वे साहित्य और सिनेमा के भेद को स्वीकार नहीं करते .वे लिखते हैं -'' सिनेमा साहित्य की एक विधा है। इस समय विचार का विषय यह है कि सिनेमा की पहुँच छपे हुए शब्द से अधिक है। उसके लिए हमारे बुद्धिजीवी कितना ही नाक-भौंह चढ़ायें ,साहित्य और समाजशास्त्र जैसे विभाग फिल्म जैसी ताकतवर साहित्यिक विधा की अनदेखी नहीं कर सकते। सिनेमा की शिक्षा और समझ  के लिए सिनेमा को साहित्य स्वीकार कर उसे साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल करना आवश्यक है। ''3
                                               किसी साहित्यिक कृति का फिल्म  रूप में उसके सफल निर्वहन को लेकर जवरीमल्ल पारख कहते हैं -'' यह प्रश्न पैदा होता है कि किसी साहित्यिक कृति के रूपांतरण के लिए फ़िल्मकार कितनी स्वतंत्रता ले सकता है। माध्यमों  भिन्नता के कारण  बदलाव अपरिहार्य हैं ,उनको तो स्वीकार करना ही होगा। लेकिन फिल्मांकन कई बार अपने को ऐसे 'बदलाव' तक ही सीमित नहीं रखते। सत्यजित  रे ने शतरंज के खिलाड़ी में अर्थ आरोपित किया है। संभव है कि सत्यजित  रे का दृष्टिकोण 'शतरंज के खिलाड़ी ' की कथा प्रेमचंद की रचना नहीं रह जाती। प्रत्येक साहित्यिक कृति विशेष कालखण्ड की उपज होती है और उनमे वर्णित 'देशकाल'भी विशेष होता है। कृति का अर्थ इन्हीं से निर्धारित होता है। फिल्म में रूपान्तरण करते हुए अगर इन दोनों बात की रक्षा नहीं की जाती है तो रचना का लेखकीय अर्थ अक्षुण्ण नहीं रह पायेगा। ''4
 
 लेकिन इसके उलट सत्यजित रे का 'शतरंज के खिलाड़ी ' को लेकर अलग नजरिया है। सत्यजित रे  bls vius fy, pqukSrh ekurs gq, dgrs gSa&^^e/; mUuhloha lnh esa ?kfVr bl leL;k ls fHkM+uk vkSj dnkfpr lelkef;d n`f"V ls ns[kuk vkSj lelkef;d igyw ls ij[kuk cM+k fnypLi gSA iqLrd ls mrkjdj egt mls lsY;qykbV ij jp nsuk Hkj ugha gSA og esjs ml O;fDrRo ls Nudj gqbZ iqujZpuk gS] tks e/; chloha lnh dk O;fDrRo gSA''5
साहित्यिक कृतियों की उपस्थिति सिनेमा में भले ही कम रही हो ,फिर भी इनपर बनी फ़िल्में सिनेमा के इतिहास में जरूर दर्ज़ हुई हैं। किसी सफल साहित्यिक कृति पर आवश्यक नहीं की सफल फिल्म बने। ओम थानवी लिखते हैं -
'' प्रेमचंद की कृतियों पर बनी फिल्मों के दौर में ही अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, सुदर्शन, सेठ गोविंददास, होमवती देवी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी और आचार्य चतुरसेन की रचनाओं पर भी फिल्में बनीं। वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर दो-दो बार। आम तौर वे सब साधारण फिल्में थीं। ''6 
साहित्य पर आधारित फिल्मों को लेकर यह प्रश्न बराबर उठता रहा है कि  फिल्म में कृति के साथ न्याय नहीं हुआ। प्रकाश झा कहते हैं - "ये अलग-अलग लोगों की सोच और सृजनशीलता पर निर्भर करता है कि वो चाहे इतिहास हो या साहित्य, विषय से कितनी सिनेमाई आज़ादी ले सकता है."7 (bbc hindi )
ओम थानवी भी इसी ओर इशारा करते है -'' एक फिल्मकार किसी कहानी, उपन्यास या नाटक पर हमेशा इसलिए फिल्म नहीं बनाता कि उसे फिल्म की पटकथा के लिए बना-बनाया कथा-सूत्र चाहिए। इसके लिए उसे बेहतर लोकप्रिय चीजें -- गुलशन नंदा से लेकर चेतन भगत तक ढेर उदाहरण मिल जाएंगे -- मिल सकती हैं। साहित्यिक कृति को चुनने में ही गंभीर सृजन के प्रति उसका सम्मान जाहिर हो जाता है; अगर लेखक का भी भरोसा उसमें हो तो अपनी कृति उसे फिल्मकार के विवेक पर छोड़ देनी चाहिए। वह परदे पर संवर भी सकती है, बिगड़ भी सकती है।
हम इस बात का खयाल रखें कि किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म उसके पाठकों का विस्तार करने के लिए नहीं बनाई जाती। न इसलिए कि जिन तक लेखनी न पहुंच सके, चाक्षुष रूप में फिल्म पहुंच जाए।''8
हिंदी की कुछ महत्वपूर्ण कृतियों को लेकर फिल्में बनी हैं -
                                  तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम फणीश्वरनाथ रेणु के प्रथम कहानी संग्रह से ली गयी थी। इस कहानी की पृष्ठभूमि आंचलिक है। हिरामन तथा हीराबाई के अव्यक्त प्रेम को लोक सांस्कृतिक पक्ष के माध्यम से दिखाया गया है। डायरेक्टर बासु भट्टाचार्य ने भाषा के स्तर पर फिल्म में मूल कहानी को ज्यों का त्यों रखा गया है। व्यावसायिकता की दृष्टि से तो यह फिल्म सफल है ही. क्लासिक फिल्मों की श्रेणी में रखी जाती है।
                             शिवमूर्ति की तिरिया चरित्तर नामक कहानी पर डायरेक्टर बासु चटर्जी ने फिल्म बनाई। गंभीर तथा प्रभावी किरदारों (ओमपुरी ,राजेश्वरी ,नसीरुद्दीन शाह )  बावजूद भी कहानी के साथ पूर्ण न्याय नहीं हुआ। स्त्री शोषण पर केंद्रित कहानी फिल्म से ज्यादा प्रभावी है।
                    प्रेमचंद के उपन्यास गोदान पर आधारित फिल्म भी कोई खास प्रभाव दर्शकों पर न छोड़ सकी। राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर बनी फिल्म ने कथानक को वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया। यह कला फिल्म की श्रेणी में आती है . कमलेश्वर के उपन्यास एक सड़क सत्तावन गलियाँ पर प्रेम कपूर ने बदनाम बस्ती नामक फिल्म बनाई।
              उपन्यास तथा कहानियों को लेकर और भी फ़िल्में बनी -रजनीगंधा-मन्नू भंडारी -यही सच है ,आँधी -कमलेश्वर -काली आँधी ,चरणदास चोर: विजयदान देथ. ब्लैक फ्राइडे-एस हुसैन जैदी -ब्लैक फ्राइडे द ट्रू स्टोरी ऑफ़ बॉम्बे ब्लास्ट्स जैसी अंग्रेजी नोवेल्स पर आधारित फिल्में भी आयी।  इधर चेतन भगत के उपन्यासों को भी हिंदी सिनेमा में पर्याप्त जगह मिली है।

बीसवीं शताब्दी में भारतमें  तेजी से बदलाव हुए । लगातार भारतीय समाज खुद को नए सांचे में ढालता गया। ऐसे में सिनेमा का बदलना लाजमी था , जो हुआ भी। हां यह सच है कि बदलाव में सिनेमा गांव, समाज से कटकर कुछ ज्यादा ही व्यावसायिक हो गया . व्यावसायिक फिल्मों  प्रचलन बढ़ने के कारण धीरे-धीरे फिल्मों की सोद्देश्यता सीमित होती गयी। अर्थपूर्ण फिल्मों की जगह व्यावसायिक फिल्मों ने ले ली। सीमित साधन और कम  तामझाम का प्रयोग करने वाली अर्थपूर्ण फ़िल्में 'कला फ़िल्में' मानी जाने लगीं थीं। तेजी से बदलते समय ने ऐसी फिल्मों को किनारे लगा दिया। आज के भाग-दौड़ के समय में हॉलीवुड की तर्ज़ पर टेक (tech) प्रेमी फिल्मों को लेकर प्रयोग हुए।  हालांकि भारत जैसे विविधता से भरे देश में अब भी भावना प्रधान फ़िल्में ही सफल हो रही हैं। रा-वन , कृष3 , धूम 3 जैसी फिल्मों ने हॉलीवुड की प्रतिकृति (replica) बनने की कोशिश की। इन फिल्मों में अत्याधुनिक उपकरणों के प्रयोग तथा उत्कृष्ट प्रस्तुति ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है। लेकिन तकनीकी प्रभाव के कारण फिल्मों  में वह संवेदनशीलता नहीं रही ,जो पारिवारिक या सामाजिक फिल्मों में देखने को मिलती है।
                                                       हालांकि सच यह भी है कि समाज पहले की अपेक्षा तकनीक से लैस हुआ है। विकास के सोपान पर हर क्षेत्र ने उन्नति हासिल करने के अनुपात में कुछ न कुछ खोया ही है। आवश्यकता है कि तकनीक जीवन पर इतना न हावी हो जाये कि मानवीयता साइड लाइन हो जाये। आधुनिक साधनों के प्रयोग के बाद भी फिल्मों में जीवंतता बची रहनी चाहिए।

आजादी के बाद भारत को साम्प्रदायिकता विरासत में मिली। सिनेमा ने ने साम्प्रदायिकता का जबर्दस्त विरोध किया।वी शांताराम की फिल्म पडोसी में हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया गया, जो वक्त की जरूरत थी।बाम्बे’, ‘मिस्टर एण्ड मिस्टर अय्यर’ जैसी फिल्में बेहतरीन उदाहरण हैं.

भारत में उद्योग के रूप में फिल्म का क्षेत्र सफल है। हर वर्ष यहाँ करोड़ों रूपये का कारोबार होता है। भारत में  राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार भी है ,जिसकी स्थापना 1964 में हुई थी। इसका मुख्य कार्य सिनेमा की विरासत को सम्भालना तथा देश में एक स्‍वस्‍थ फिल्‍म संस्‍कृति के प्रसार के लिए एक केन्‍द्र के रूप में कार्य करना है। फिल्मों पर आधारित 25000 पुस्तकों तथा 100 से अधिक फ़िल्मी पत्रिकाएं देश-विदेश के फिल्म से जुड़े छात्रों के लिए वरदान है। भारतीय फिल्मों को देश -विदेश में काफ़ी पसंद किया जाता है। विदेशों से फिल्मों के अच्छे कलेक्शन से एक बात स्पष्ट  है कि भाषा के स्तर पर ये हिंदी के विस्तार का महत्वपूर्ण जरिया हैं। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में फिल्मों का बहुत बड़ा  योगदान है।

नब्बे के दशक में आये उदारीकरण ने सिनेमा को भी प्रभावित किया। बाज़ारवाद ,साम्प्रदायिकता ,आतंकवाद आदि पर केन्द्रित  फिल्में बनीं। इस दशक में परिवार ,परंपरा ,संस्कृति केंद्रित फ़िल्में बनीं। ये फ़िल्में न केवल भारतीयता से जुडी थीं बल्कि विदेशों में रह रहे भारतीयों को अपनी माटी की सुगंध बराबर पहुँचा रही थीं। बॉलीवुड ने  प्रवेश द्वार से होते हुए वैश्विक जगत में उपस्थिति दर्ज़ करायी।
                  
फ़िल्में समाज के बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं। 13 से 30 उम्र का वर्ग पहनावे , हाव-भाव आदि फिल्मों से सीखता है। फिल्म और फैशन जगत से जुड़े जी. वेंकटराम कहते हैं 'the marriage between films and fashion and social trends is never as close as in India' .गीतकार प्रसून जोशी  के मुताबिक, “भारतीय सिनेमा के 100 साल के सफ़र को मैं बड़ा सफ़र मानता हूँ. हमारा रहन सहन, कपड़ने पहनने का तरीका, बोलचाल, संस्कृति ...इन सब पर जितना असर फ़िल्मों ने डाला है उतना असर शायद किसी और चीज़ ने नहीं डाला. आज सिनेमा के बिना भारत की कल्पना करना मुश्किल है.'' (bbc hindi)  
                                 फिल्म जगत अपने ग्लैमर तथा व्यावसायिक विस्तारीकरण के कारण हमेशा से प्रभावी रहा है। भारतीय सिनेमा में राजनीति ,दैनिक संदर्भ ,पर्यटन , विषयगत नवीनता ,नायक को आइकन के रूप में प्रस्तुत करने का क्रम लगातार जारी है। विक्की डोनर के निर्माता सुजित सरकार कहते हैं  'indian cinema welcoming real and new role-casts for its stereotyped characters.'
                              
        लगान , ज़ुबैदा ,ग़दर ,देवदास ,पिंज़र ,मक़बूल ,चक दे इंडिया ,तारे ज़मीं पर ,पान सिंह तोमर आदि फिल्मों ने श्रेष्ठता के पैमाने पर खुद को साबित किया तथा विश्व सिनेमा में एक अलग मक़ाम बनाया। इक्कीसवी सदी के स्क्रिप्ट ने फिल्मों में आये बड़े बदलाव को महसूस किया।  इक़बाल (2005), बुधवार (2008), देव डी (2009), पिपली लाइव (2010)  उड़ान (2010) जैसी फिल्मों ने सिनेमा को कुछ अतिरिक्त देने की कोशिश की। यह अलग तरह की फ़िल्में थीं जो विचारोत्तेजक और जागरूक सिनेमा की परिचायक थीं। इन्हें प्रयोगात्मक फिल्में  भी कहा जा सकता है। जो भारतीय सिनेमा के सकारात्मक बदलाव की ओर  इशारा कर रही हैं।

                अनुराग कश्यप  भारतीय सिनेमा के भविष्य को लेकर बहुत आशान्वित हैं. अनुराग कहते हैं, “सिनेमा का भविष्य अच्छा ही नज़र आ रहा है. पूरे भारत भर में अब जिस तरह की फिल्में बनने लगी हैं वो बहुत प्रगतिशील हैं चाहे वो मराठी, तमिल या तेलगु फिल्में हों. अब तक हम बंधे हुए थे लेकिन अब हम लोग और हमारा सिनेमा खुल रहा है, आज़ाद हो रहा है. आगे जो भी होगा अच्छा ही होगा.” bbc(hindi)
                                               'growing old  is manadatory while growing up is optional .'आज के भारतीय सिनेमा  संदर्भ   कथन उलट जाता है।  बड़ी उम्र के अभिनेता अब भी अपना बेस्ट शॉट देने  तत्पर हैं। अनुराग बासु ,अनुराग कश्यप , अनुषा रिज़वी आदि नयी पीढ़ी के निर्देशकों ने यथार्थवादी तथा प्रेरणादायक फिल्मों का निर्माण किया। हिंदी सिनेमा विचार आधारित अर्थपूर्ण फिल्मों की ओर  अग्रसर है। जो भविष्य में फिल्म फ्रेटर्निटी को सफलता की नयी ऊँचाइयाँ दिलाएगा।

1-संजीव श्रीवास्तव -हिंदी सिनेमा का इतिहास -पृ. 3 -4
2-आदित्य विक्रम सिंह -हिंदी कहानियों का सिनेमाई रूपांतरण (शोध)-पृ. 131
3-प्रह्लाद अग्रवाल -हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक -पृ.368
4-ज्वरीमल्ल पारख -लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ -पृ. 210
5-हरीश कुमार -सिनेमा और साहित्य -पृ.122
6-ओम थानवी -जनसत्ता

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