शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

लुत्फ़ है लफ़्जये कहानी में

बहती गंगा एक क्लासिक कृति है। इतिहास के आईने से काशी दर्शन या काशी के आईने से इतिहास वर्णन। दोनों में सफल है यह कृति। बहती गंगा (1952) हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में अपने शिल्प को लेकर ख़ासी चर्चित रही है। इसमें काशी के इतिहास को अलग - अलग कहानियों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। सभी कहानियाँ अपने स्वरुप में तो अलग है किंतु इतिहास तथा अनुश्रुतियों के मिश्रण पर आधारित ये सभी एक साथ जुडी हुई भी प्रतीत होती हैं। बहती गंगा को लेकर यह प्रश्न उठता रहा है कि इसे कहानी संग्रह माना जाये या उपन्यास। हालांकि लेखक ने स्वयं इसका निर्णय आलोचकों पर छोड़ दिया है। शिवप्रसाद मिश्र 'रूद्र' इसे किसी विधा में फिट करने के बजाय इसका स्वतंत्र मूल्यांकन कराना ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। वे कहते भी हैं -''विधाएँ साहित्य की जननी नहीं हैं,साहित्य ही विधाओं का जनक है। अधिकांश इतिहासकारों और प्रकाशक ने इसे अत्यंत सघन भाषा,जीवंत चित्रों अनूठी शैली के साथ आख्यान और किंवदन्तियों का अद्भुत मिश्रण वाला उपन्यास माना है।
साहित्य समाज का इतिहास होता है और जीवन का भी। मानव जाति के उत्तरोत्तर विकास को व्यक्त करने का माध्यम है भाषा। समाज और भाषा का  विकास साथ- साथ चलता है। उपन्यास इन दोनों के विकास को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। उपन्यासकार सजगता तथा गहराई के साथ इतिहास में पैठ बनाता है और भविष्य में दखल करता है। बहती गंगा का लेखक भी कुछ इसी तरह आगे बढ़ता है। लेखक ने यथार्थ और कल्पना के मिश्रण से काशी के इतिहास को ही व्याख्यायित नहीं किया बल्कि उस संवेदना को भी उकेरा है जो काशी के रग -रग में बसी है। अलग-अलग शीर्षकों में बंटा यह उपन्यास अन्दर एक सूत्र में पिरोया हुआ है।
बहती गंगा किसी खास चरित्र या घटना को लेकर नहीं बुना  गया बल्कि काशी के सामाजिक -सांस्कृतिक ताने-बाने को केन्द्र में रखा गया है। बहती गंगा काशी के सैद्धांतिक समीकरणों को सरलीकृत करती चलती है। बहती गंगा का शिल्प जितना अलग है , उसके शीर्षक उतने ही रोचक हैं। गाइए गणपति जगबन्दन से लेकर सारी रंग डारी लाल-लाल तक इतिहास और आधुनिकता का अद्भुत मेल है। काशी के दो सौ वर्षों के इतिहास के माध्यम से शिव प्रसाद मिश्र 'रूद्र' ने मानव मन की कमजोरियों तथा उदात्तता को इस कुशलता के साथ उभारा है कि तत्कालीन समाज अपनी सामाजिक ,सांस्कृतिक और राजनीतिक सजीवता के साथ पाठक के समक्ष उपस्थित होता है। काशी के जीवन को चित्रित करने के लिए यह आवश्यक था कि उसकी लोक बानी के माध्यम से उसे अभिव्यक्त किया जाये। रूद्र जी की भाषाई कुशलता के कारण यह उपन्यास बेहद प्रभावी बन पड़ा है। उनकी भाषा का बनारसी अन्दाज़ 'घोड़े पै हौदा औ हाथी पै जीन ' में कुछ इस तरह झलका है-'' लड़िका के काहे मरले ! बोल ! ''… ए सारे से पूछs कि ई भागत काहे रहल ''.
रूद्र जी का यह उपन्यास काशी की संस्कृति और लोक जीवन का  जीवन्त दस्तावेज़ है। 1750 से 1950 तक  काशी के प्रवाहमान समय को रूद्र जी ने अनूठे प्रयोग से रोचक बना दिया है। अपने अबूझेपन के बावजूद भी यह उपन्यास हिंदी साहित्य में अलग स्थान रखता है। रूद्र जी 'आए ,आए, आए ' और अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी ' के माध्यम से काशी की साझी संस्कृति की चर्चा करना नहीं भूलते। ध्यान देने योग्य बात है कि अधिकांश कथाओं में स्त्री पात्रों के इर्द-गिर्द ही रचना की बुनावट की गयी है। 'गाइए गणपति जगबन्दन ' में रानी पन्ना हों या 'सूली ऊपर सेज़ पिया की ' में मंगला गौरी या 'सारी रंग डारी लाल-लाल की  सुधा। ये सभी प्रेम,त्याग ,क्रोध आदि को व्याख्यायित करती नज़र आती हैं। एक सचेत लेखक सामाजिक यथार्थ को अपनी रचना में प्रतिबिम्बित ही नहीं करता बल्कि उसकी पुनर्रचना भी करता है। किसी क्लासिक रचना में युगीन वास्तविकताओं का गहरा बोध होता है। रचना के हर स्तर पर चाहे वह भाषा ,शिल्प या संरचना हो ,समाज व्यक्त होता है।बहती गंगा में लेखक की सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता देखने को मिलती है।  रूद्र जी की मौलिक दृष्टि ने 'बहती गंगा' को साहित्य में विशिष्ट स्थान दिलाया। उनकी प्रयोगधर्मिता का ही परिणाम है कि 'बहती गंगा' साहित्य में अपने अलग अस्तित्व के कारण जानी जाती है।

3 टिप्‍पणियां:

Entertainment Jokes ने कहा…

अच्छी जानकारी के लिए शुक्रिया।

Entertainment Jokes ने कहा…

अच्छी जानकारी के लिए शुक्रिया।

Unknown ने कहा…

Sukriya thanks