शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

ओम प्रकाश वाल्मीकि :सलाम से आगे

ओम प्रकाश वाल्मीकि का  संग्रह 'सलाम' दलित जीवन का आईना  है .इस कहानी संग्रह में कुल चौदह कहानियाँ हैं। सलाम,बिरम की बहू ,पच्चीस चौका डेढ़ सौ इस संग्रह की चर्चित कहानियाँ  हैं। सभी कहानियों में उपेक्षित और वंचित दलित जीवन के विविध पक्षों को प्रस्तुत किया गया है।उन्होंने दलित जीवन के पीड़ा ,संत्रास और छटपटाहट ,जीवन की  विवशता को रचनात्मक रूप प्रदान किया। उन्होंने शोषित जन समूह के अस्मिता को उभारा और समाज की  विसंगतियों पर प्रहार किया।  ओम प्रकाश वाल्मीकि ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक आंदोलनों को साहित्यिक अभिव्यक्ति देने का महत्वपूर्ण काम किया। सभी कहानियाँ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सन्दर्भों के बीच रची गयी हैं। एक बड़े वर्ग का असंवेदनशील चेहरा इन कहानियों में उभर कर सामने आता है। बरसों की उपेक्षा से उपजी व्यथा को वाल्मीकि जी ने स्वर दिया है। दलित साहित्य उस सामन्तवादी व्यवस्था के खिलाफ़ उठ खड़ा हुआ , जो पीढ़ियों से एक वर्ग के लोगों को अछूत समझता रहा।  दलित साहित्य उन दमित लोगों की अस्मिता की पहचान है। दलित जीवन संघर्ष से उपजी मुक्ति की चेतना ने नयी रचनाधर्मिता को अभिव्यक्ति दी। मानव विरोधी वर्ण व्यवस्था के परिणामस्वरूप साहित्य में नये नायकों का जन्म हुआ।
                                                                                इस  कहानी संग्रह की  पहली ही कहानी 'सलाम' उस सामंती सोच और व्यवस्था के ख़िलाफ़ है जो बरसों बरस से चली  रही है. वाल्मीकि जी का मानना था कि एक दलित ही दलित की पीड़ा को  समझ सकता है।  कुछ हद तक यह सच भी है क्योंकि समाज के तिरस्कार से उपजी पीड़ा की  अनुभूति शायद ही सवर्ण व्यवस्था का अंग बनकर किया जा सके। सलाम कहानी का पात्र हरीश जो पढ़ा लिखा युवक है तथा शहर से गाँव ब्याह के लिए आया है। वह गांव में घूम-घूम कर बड़े लोगों के दरवाजे जाकर सलाम करने के खिलाफ है। वह थोड़े से कपड़े ,बर्तन और नेग के लिए अपने स्वाभिमान को गिरवी नहीं रखना चाहता। उसे याद है कि जब भी उसने पहले किसी दूल्हे या दुल्हन को दरवाजे-दरवाजे घूमते देखा है तो उसके स्वयं के स्वाभिमान को ठेस पहुँची है। वाल्मीकि जी ने शहर और गाँव का फर्क भी दिखाया है।  शहर के लोग शिक्षित होने के कारण अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं। शहर से हरीश का दोस्त कमल भी साथ आया है।  गाँव आकर वह महसूस करता है कि अख़बारों में छपी दलित शोषण की  जिन घटनाओं पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ , वे सच में घटित होती हैं। दलित युवक को पीट -पीट  कर मार डाला गया या ऐसी ही अनेक घटनाएं अक्सर उसकी निगाहों से गुजरी हैं।  ऐसी ही एक घटना से वह खुद रुबरु हुआ ,जब एक सुबह वह चाय की  दुकान पर अपमानित किया गया। जाति विशेष के सम्बोधन से उसे गालियाँ दीं गयीं।  इस पूरी घटना को वाल्मीकि जी इस तरह लिखते हैं -'' कमल को लगा जैसे अपमान का घना बियाबान जंगल उग आया है। उसका रोम-रोम काँपने लगा। उसने आस-पास खड़े लोगों पर निगाह डाली। हिंसक शिकारी तेज़ नाखूनों से उसपर हमला करने की  तैयारी कर रहे थे। '' कमल की  गलती महज इतनी थी कि वो हरीश का दोस्त था. ब्राह्मण होने के वाबजूद वह कैसे एक दलित के घर रुक सकता है। अतः किसी ने उसकी बात का यकीन नहीं किया कि वह ब्राह्मण है। ओम प्रकाश वाल्मीकि ' युग चेतना ' नामक अपनी कविता में अपनी पीड़ा कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-- 
              इतिहास यहाँ नकली है
             मर्यादाएँ सब झूठी
             हत्यारों की  रक्तरंजित उँगलियों पर
             जैसे चमक रही
           सोने की  नग जड़ी अंगूठियाँ

हरीश के भीतर आक्रोश है।  वह कहता है - '' आप चाहे जो समझें .... मैं इस रिवाज को आत्मविश्वास  तोड़ने की साजिश मानता हूँ। यह ' सलाम ' की  रस्म बंद होनी चाहिए। '' समाज के कुछ बाहुबलि लोगों  द्वारा किया जाने वाला शोषण अब दलित वर्ग और नहीं सहेगा।  शक्ति प्रदर्शन की  यहाँ परंपरा ख़त्म  होनी चाहिए। हरीश का सलाम से इंकार पूरे  समाज को चुनौती है।  प्रतिरोध के लिए साहस की आवश्यकता होती है। यह साहस शिक्षा से आया है। वाल्मीकि जी ने यहाँ दिखाने की  कोशिश की  है कि शिक्षा एक ऐसा औज़ार है जिसके द्वारा जाति व्यवस्था की  बेड़ियों को काटा जा सकता है। दलित समाज अपने अधिकारों के प्रति तभी सचेत होगा जब वो शिक्षित हो।  सलाम कहानी में वे  जातिगत संस्कारों को तोड़ने की  बात करते हैं ,उसी के अंत में हिन्दू - मुसलमान के छुआछूत भेद को दिखाते हैं। सलाम करने न जाकर जिस हरीश को स्वाभिमान और आत्मविश्वास से भरा दिखाते हैं वही एक छोटे लड़के के ये  बोल सुनकर ' मैं मुसलमान के हाथ की बनी रोटी नहीं खाऊंगा ' हताश हो जाता है।  सम्भवतः लेखक ने इस कहानी के माध्यम से जाति के साथ-साथ धार्मिक भेदभाव की  समाज में गहरी पैठ की  ओर ईशारा किया है।
                                                    ओम प्रकाश वाल्मीकि का लेखन सामाजिक भेदभाव ,उत्पीड़न और आर्थिक विषमताओं के खिलाफ था। इस कहानी संग्रह की  सभी कहानियाँ वंचित वर्ग के शोषण की  गाथा है। जातिवाद के दोहरे मानदंडों पर भी सवाल उठाया है वाल्मीकि जी ने।'सपना' कहानी में मंदिर ,मस्जिद गुरुद्वारा के निर्माण की  योजना बनती है। बौद्धों की  संख्या अधिक होने के कारण बौद्ध विहार के लिए भी जगह आरक्षित कर दिया गया। सभी के निर्माण का काम शुरू हो गया सिवाय मंदिर के।  क्योंकि मंदिर में किस ईश्वर की स्थापना की जाय यही विवाद का विषय था। कोई शिव मंदिर तो कोई राम,कृष्ण या बजरंगबली का मंदिर बनवाना चाहता था। अंत में बाला जी का मंदिर बनना तय हुआ। वाल्मीकि जी यहाँ दिखाते हैं कि भारत में विविधता इंसानों में ही नहीं ,ईश्वर भी सबके अलग-अलग हैं। मंदिर निर्माण के हर काम में अनिल कुमार गौतम ऋषिराज का साथ दे रहा था। लेकिन प्राण-प्रतिष्ठा के समय उसे  पीछे बैठने को कहा जाता है. नटराजन गौतम को कहता है -'' वहाँ गेट के पास चले जाओ। जो भी भीतर आये उनसे जूते उतारने के लिए कहो।  जूते पहनकर कोई पंडाल में न आये और जूतों पर नज़र रखना ,ऐसे में जूता चुराने वाले मँडराते रहते हैं। '' गौतम जो मंदिर निर्माण के कामों में ऋषि के बराबर साथ रहा ,अचानक उसे उसकी जाति के आधार पर अलग कर दिया जाता है। ऋषि को ये बात अच्छी नहीं लगती।  वो इस बात का विरोध करता है -'' जब वह दिन-रात अपना खून पसीना बहा रहा था ,इस मंदिर को खड़ा करने में , तब आप नहीं जानते थे कि वह एस सी है। तब आपने क्यों नहीं कहा कि जो एस सी है वो मंदिर के काम में हाथ न बंटाये। इसके चूने -गारे में अपने जिस्म का पसीना न मिलाये ,क्यों नहीं आपने ऐलान किया कि जो ईंट किसी एस सी ने बनाई या पकाई है ,ट्रक में चढ़ाई या उतारी है ,वे ईंटें इस मंदिर में नहीं लगेंगी। '' मंदिर के भीतर इस तरह का भेदभाव पर बनाने के समय कोई छुआछूत नहीं। ऊँच नीच के ये विचार तथाकथित उच्च जातियों ने अपनी सुविधानुसार सृजित किये हैं।
               इस कहानी संग्रह में कई ऐसे भी पात्र हैं जो   वंचित होने के कारण वे समाज के घृणा और तिरस्कार के पात्र बने। जिन पर बिना गलती किये भी सज़ा थोप दी गयी। कहाँ जाये सतीश कहानी में सतीश की  गलती महज़ इतनी है कि वो दलित जाति का है। जब तक मिसेज़ पंत को ये पता नहीं था , उनकी बेटी सोनू ने सतीश को राखी बांधी  थी। पर अब वो एक पल भी सतीश को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी--'' हाँ … अब यही तो बचा है ,बाप-दादों की परंपरा ख़त्म कर दी। एक डोम को घर में रख लिया। सोनू तो उसका जूठा तक खा गई … मेरी तो समझ नहीं आ रहा कि प्रायश्चित कैसे होगा ....अगर मुझे पता होता तो घर में घुसने भी न देती उसे। जैसे वह वापस आएगा उसका सामान उठाकर बाहर फेंको। मुझे तो उसके कपड़ों से भी  बदबू आने लगी है। '' यह घृणा बेमतलब थी।  यह अधिकतर समाज की जड़ मानसिकता रही है जो इस कहानी के माध्यम से व्यक्त हुई है। गोहत्या कहानी का पात्र सुक्का  में विरोध का साहस न था। उसे सिर्फ शक के आधार पर पंचायत ने सजा सुना दी। वह कसम खाकर कहता रह गया कि उसने गौ हत्या नहीं की। जिसने कभी सूअर न मारा हो वह गौहत्या कैसे कर सकता है। सब इस सच से वाकिफ़ थे। पर पंचायत की  विरोध का साहस किसी में न था। निर्दयता की  हद ये कि हल में काम आने वाली लोहे की फाल को आग में तपाकर उसके हाथ में थमा दिया गया। सुक्का की सजा से पूरा गांव जैसे गोहत्या के पाप से मुक्त हो गया हो। 

इसलिए वे उस प्रताडना के शिकार हुए। ओम प्रकाश वाल्मीकि ने साहित्य में एक अपरिचित समाज का पक्ष रखा. इनकी आत्मकथा जूठन साहित्य में एक विस्फोट की  तरह आयी।  इस रोंगटे खड़े कर देने वाली आत्मकथा ने साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर  खींचा। इनकी कहानियों में भी अनुभव की  प्रमाणिकता तो है ही ,साहित्य में जिन मानवीय मूल्यों के स्थापना की  बात कही गयी है , उनकी स्थापना पर भी बल दिया गया है।
                              वाल्मीकि जी ने दलितों को लेकर भी प्रश्न उठाये हैं। अंधड़ कहानी के मिस्टर लाल अपने अतीत को भूल कर आगे बढ़ गये और उनकी परछाईयों से भी बचने की  कोशिश करते रहे।दीपचंद की मृत्यु ने मिस्टर लाल को भावुक कर दिया था। दीपचंद की  वजह से ही वे पढाई कर सके थे। उनके सहयोग की वजह से आज वे पूना के एक सरकारी संस्थान में वैज्ञानिक जैसे प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त थे। लेकिन वो  जीवन की  सच्चाईयों से पलायन करते रहे थे. पत्नी सविता को याद हो आया था कि कैसे वे  पूर्व में दीपचंद के घर जाने की  बात पर  बिफर पड़े थे -'' मैं जिस गंदगी से तुम्हे बाहर निकालना चाहता हूँ …तुम लौट लौटकर उसी में जाना चाहती हो। तुम वहाँ जाओगी ,तो वे भी यहाँ आयेंगे। मैं नहीं चाहता यहाँ लोगों को पता चले कि हम 'शेड्यूल्ड कास्ट' हैं। जिस दिन लोग ये जान जायेंगे ,यह मान-सम्मान सब घृणा-द्वेष में बदल जायेगा। '' मिस्टर लाल की आज की भावुकता देखकर सविता पति के दोहरेपन पर विस्मित थी।  यह कथन  आईना है दलित समाज का ,जिसके लिए आगे बढ़ जाने पर उसका अपना ही समाज घृणित हो जाता है। जो अपनी वास्तविकताओं और यथार्थ को छोड़कर छद्म जिंदगी जीने लग जाता है।  बेटी पिंकी के सवालों का कोई जवाब नहीं मिस्टर लाल के पास --'' आपने इनके लिए क्या किया ?आई थिंक यू हैव इग्नोर्ड देम.... आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था डैड। ''  यह कटाक्ष है . मिस्टर लाल अपने साथ अगर अपने समाज के कुछ और लोगों को लेकर आगे बढ़ते तो कुछ स्थिति सुधरती।
                  दलित लेखन और उनके साहित्यिक उभार ने परिवर्तनकामी समाज में एक तरह का अपराधबोध भी जागृत किया है। सामान्य वर्ग के वे लोग जो इस शोषणकारी व्यवस्था को बदलना चाहते हैं ,समाज के उस तबके के स्वर के साथ स्वर मिला रहे हैं।  जैसा की  वाल्मीकि जी ने भी अपनी कई कहानियों में दिखाया है। कमल और ऋषि ऐसे ही बदलाव के पक्षधर हैं। भूमण्डलीकरण के युग में परम्परा के अमानवीय पहलुओं को नकार कर ही इस जाति व्यवस्था में स्थानांतरण किया जा सकता है। शहरीकरण , राजनीतिक ,आर्थिक बदलावों के परिणामस्वरूप व्यक्ति चेतना का उदय हुआ है। पूर्व में हाशिये पर रहा समाज अब मुख्य धारा में शामिल हो रहा है।
       कवि ,कथाकार ,विचारक के तौर पर वाल्मीकि जी ने पीड़ित समुदाय की विसंगतियों पर भी मुखरता से लिखा। ताकि समाज में सामंजस्यपूर्ण  और गुणात्मक परिवर्तन किया जा सके। उन्होंने साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ा।   दलित जीवन की  ये कहानियाँ हमारे समाज की  तस्वीर हैं ,जिसे हम अनदेखा करते आये हैं। यह साहित्य में किसी विमर्श का विषय नहीं ,समाज में मानव मूल्यों की  स्थापना का विषय है। ओम प्रकाश वाल्मीकि के साहित्य में प्रश्नवाचकता है। जो साहित्य और समाज दोनों के लिए आवश्यक  है . इसलिए इन कथाओं को थमकर ठहर कर पढ़ना होगा ताकि वे मात्र साहित्यिक निधि न रहें बल्कि  समाज के भीतर परिवर्तन लाने  वाली तथा समतामूलक -न्यायसंगत व्यवस्था स्थापित करने में मददगार हो सकें। उन्होंने समाज और साहित्य के वर्चस्व को चुनौती देने का काम किया। उनका ऊर्जात्मक साहित्य आगे की पीढ़ियों के लिए मशाल का काम करेगा और नयी चेतना का वाहक बनेगा।
                              
                          

3 टिप्‍पणियां:

Indrajeet Kumar Patna ने कहा…

यह लेख बहुत अच्छा लगा। लेखक को धन्यवाद।

बेनामी ने कहा…

Mam, क्या हम इस लेख को उपयोग में ले सकते है?

बेनामी ने कहा…

Kaise likh sakte hain ise