बुधवार, 20 नवंबर 2013

ताने बाने पर कसी ज़िन्दगी

आंचलिक उपन्यास अर्द्धशती को पूरा कर चुका है। पिछले दो दशकों में कई उपन्यासों ने हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण और सशक्त उपस्थिति दर्ज़ कराई है। इन उपन्यासों ने हिंदी भाषा और साहित्य को नये आयाम दिए हैं। जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को इन उपन्यासों ने उदघाटित किया है। आंचलिक उपन्यासों ने सामाजिक जीवन के उन पक्षों को उजागर किया है जिन पर अमूमन ध्यान नहीं जाता। अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ' झीनी-झीनी बीनी चदरिया ' बुनकर जीवन के ऐसे ही कुछ अनछुए पहलुओं को समाज के सामने रखता है।  अपनी तमाम त्रासदियों के साथ बुनकर कैसे अपने संघर्षपूर्ण जीवन को सहेजने की कोशिश करता रहता है फिर भी अंत तक उन समस्याओं से निजात नहीं पा पाता। समाज के हाशिये पर खड़ा बुनकर अपने ही लोगों के बीच छला जाता है। इस शोषणगाथा में उसके सहयोग को कोई सामने नहीं आता। अपनी परिस्थितियों से लड़ता जूझता वह जीवन की  सीढियाँ चढ़ता जाता है।
                                        मतीन ,रऊफ चाचा ,अल्ताफ़ ,बशीर, हनीफ ,इक़बाल के माध्यम से गरीबी तथा विपन्नता में जी रहे बुनकरों के परजीवी समाज को चित्रित किया गया है। ये श्रमजीवी वर्ग के लोग अपनी हर आवश्यकता के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। अपनी परिस्थितियों से असंतुष्ट हो मतीन इस शोषण तंत्र को तोड़ने की  कोशिश करता है पर असफल होता है। यह असफलता उसे तोड़ नहीं पाती। इक़बाल जो कि मतीन का बेटा है बचपन से ही इन जाल को देखता आया है और उसे तोड़ने की  भरपूर कोशिश में लगा है। वह लोगों को एक करता है और आंदोलन की ज़मीन तैयार करता है। अपने हक़ के लिए सभी एकजुट होकर अनशन की  राह चल पड़ते हैं। युवा पीढ़ी किसी दबाव में आना नहीं चाहती।  प्रतिरोध का स्वर छित्तनपुरा के वातावरण में घुल गया है।
इस समाज का एक दूसरा पक्ष भी है जो स्त्री पत्रों के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है। अलीमुन ,नजबुनिया ,कमरून ,रेहाना आदि स्त्री पात्र परम्परागत मुस्लिम समाज के आईने की  तरह हैं। इनका शोषण हर स्तर पर है। अधिकार कोई नहीं। स्त्रियों की  स्थिति निरीह है। वे कतान  फेरें ,हांडी -चूल्ही करें ,साथ में सोयें ,बच्चे जनें और पांव दबायें। अगर इस काम में किसी तरह की हीला हवाली करें तो इस्लाम का पालन करते हुए इन्हें तलाक़ दे दो।  हर तरह से उनका उपयोग करो। जहाँ कहीं वे कम साबित हों वहीँ उनसे मुक्ति पा लो।
                              यह उपन्यास जिंदगी के झंझावातों से भरा पड़ा है। बुनकरों के मेहनत और उनकी कंगाली की गाथा है झीनी-झीनी बीनी चदरिया में।  यह लेखक की उपलब्धि है कि उसने इतना मौलिक विषय चुना और बुनकर जीवन को इतनी संजीदगी से उभारा।  महत्वपूर्ण उपन्यास बनारस के बुनकरों को लेकर लिखा गया है।  बुनकरों को केंद्र में रख कर शायद ही कोई उपन्यास लिखा गया हो।  यह उपन्यास न केवल उनके धार्मिक-सांस्कृतिक परिवेश बल्कि उनकी आर्थिक-सामाजिक विसंगतियों को भी विस्तृत फलक पर उभारता है।
                           यह उपन्यास सदी व्यवसाय से जुड़े लोगों कि विसंगतियों तथा तमाम सच्चाइयों को उजागर करता है -'' एक समाज दुनिया का है। एक समाज भारत का है। एक समाज हिन्दुओं का है। एक समाज मुसलमानों का है। और एक समाज बनारस के जुलाहों का है।  यह समाज कई अर्थों में दुनिया के हर समाज से अलग है। इस समाज के कई खण्ड हैं। '' 1 इस खंड-खंड में बंटे समाज के अलग-अलग महतो हैं।  यहाँ कुछ लोग बनारसी हैं तो कुछ मऊनाथ भंजन से यहाँ आकर बसे हैं।  दोनों पक्षों के लोग बी ग्रुप और एम ग्रुप में बंटे हैं। आपस में इनमे नोक-झोंक चलती रहती है।  इन सबकी बोली-भाषा और रीति -रिवाज़ में फ़र्क है पर मूलतः ज़िन्दगी सबकी एक ही है - मर्दों के पाँव करघे में और स्त्रियों के हाथ चरखे में।
                                            बुनकरों कि ज़िन्दगी कि त्रासदी यही है कि उनकी पीढ़ियाँ इस व्यवसाय में खप  जाती हैं। मतीन अब भी बनी पर ही बीनता है। उसके पिता भी बनी पर ही बीनते थे। मतीन को कतान  हाज़ी साहब के यहाँ से लाना पड़ता है।  हर बुनकर  की यही कहानी है उनकी इतनी हैसियत कभी नहीं हो पाती कि अपना कतान खरीद सकें ऽगर कतान न मिले तो भूखों मरने की स्थिति हो। बढ़ती महंगाई और रोजमर्रा के खर्चों से इतना पैसा भी नही जुड़ पता कि अगले दिन के लिए कुछ बचा सकें। रोज का जुगाड़ करो वर्ना सूखी रोटी भी नसीब न हो।
                                यह उपन्यास ताना-बाना खण्ड में विभाजित है, बीच में क्षेपक है जो लेखक की  स्थिति को स्पष्ट करता है। ताना खंड में बुनकरों के शोषण चक्र ,उनके दैनिक जीवन के कार्य-कलाप, शादी तथा उनके निजी जिंदगी की  दस्तक मिलती  है। बाना खंड में राजनीति में फंसे बुनकरों की  कथा है। किस तरह सरकार तक पहुँच रखने वाले लोग इस फ़िराक़ में रहते हैं कि रेशम का भाव तोडा जाये। दुनिया कि तरक्की का असर इस व्यवसाय पर भी पड़ा है।  करघों की  जगह अब पावरलूम लग गए हैं।  बुनकर एक साड़ी  चार दिन में तैयार करता है वहीँ पावरलूम से चार साड़ी एक दिन में तैयार हो जाती है।  पावरलूम से बनी साड़ी  में आमदनी भी ज्यादा है। अब बुनकरों की  गलियों से खटर -खटर  की  अंतहीन आवाज आती रहती है। झीनी-झीनी बीनी चदरिया बुनकरों की  ज़िन्दगी को पूर्णता के साथ व्याख्यायित करता है . मतीन जो इस उपन्यास के महत्वपूर्ण किरदारों में से एक है , अपने समाज के सत्य से परिचित है।  मतीन कि बीवी कि टी.बी. हो गया है। वह जानता है कि घर के काम के साथ ही अलीमुन को फेराई-भराई ,नरी -ढोटा सब करना होगा। '' बिना  किये काम  चलेगा नहीं। और रहना भी  होगा परदे में। खुली हवा में घूमने का सवाल नहीं।  समाज के नियम सत्य हैं।  उन्हें तोडना गुनाह है। छित्तनपुरा से लेकर मदनपुरा तक कहीं भी इस नियम में अंतर नहीं। '' 2
                                       लेखक ने कहीं-कहीं उन बातों  का भी जिक्र किया है जो बनारस की  संस्कृति का हिस्सा हैं।  धार्मिक आडम्बरों पर सवाल खड़ा करते हुए वे कहते हैं -''आगे-आगे दुर्गा की प्रतिमा और पीछे-पीछे शोर मचाती भीड़। एक ऐसा शोर जिसका आध्यात्म से  नहीं। ठीक इसी शोर उस वक़्त भी होता है जब ताजिये का जुलूस निकलता है। धर्म दोनों ही अवसरों पर सड़कछाप हो जाता है। वह सरे आम सिर के बल खड़ा हो जाता है. लेकिन फिर भी लोग कहते हैं यह सत्य है और  सत्य है। इस सत्य के लिए लोग कट मरते हैं. '' 3 अब्दुल बिस्मिल्लाह धार्मिक संकीर्णता पर आंशिक रूप से प्रहार किया है। इससे पता चलता है कि लेखक की धार्मिक परिदृश्य पर भी है। कोई भी समाज इन धार्मिक रूढ़ियों की  वजह से ही आगे नहीं बढ़ पाता।
                                                   मतीन का बीटा इक़बाल बुनकरों की  ज़िन्दगी के अनसुलझे सवालों से जूझता है। उसकी बेबसी कुछ इस तरह व्यक्त हुई है -'' साड़ी उसे नहीं बेचनी थी। अपनी माँ को दे देनी थी। जब वह छोटा था तभी से माँ की  लालसा को वह देखता आ रहा था। छिः दुनिया  साड़ी बीनकर देने वाले घर की  औरत को एक सस्ते दाम वाली बनारसी साड़ी भी नसीब नहीं। पूरी उम्र कट गयी सूती धोतियों और छींट की सलवार कमीज़ पर … आज कैसी चमक थी अम्मा की  आँखों में , साड़ी पर किस तरह उसकी उँगलियाँ फिर रही थीं -जैसे कोई भूखा बच्चा रोटी पर अपना हाथ फेरे। '' 4 यह बुनकर जीवन की  कड़वी सच्चाई है। लेखक ने सम्पूर्णता के साथ इस सच्चाई को अभिव्यक्ति दी है। यह लेखक की  सूक्ष्म संवेदना का परिचायक है कि उन्होंने बारीकी से उस समाज का चित्रण किया है और अछूते सन्दर्भों को भी गहनता के साथ प्रस्तुत किया है।
                         झीनी-झीनी बीनी  चदरिया के माध्यम से बिस्मिल्लाह जी ने बुनकरों के जीवन और उनके इर्द गिर्द बुने गए शोषण चक्र को उजागर किया है। उन पर किये जेन वाले शोषण अलग-अलग तरह के हैं। '' हाज़ी  साड़ी  में कोई न कोई ऐब जरुर दिखाई पड़  जाता है . कभी कहेंगे
ढाटी कड़ी लगी है तो कभी कहेंगे ढक  लगी है। हज़ार तरह के ऐब।  छीर है,ओखा बिनान है ,खेवा कड़ा  लगा है ,तार का जोड़ है ,नाका पड़ा है ,हुनर कटा-कटा पड़ा है ,तिरी पड़ी है, छापा पड़ा है,रंग ठिकहा है ,गण्डा पड़ा है,बाढ़ ख़राब है,कतान  महीन है … '' 5 बुनकर बढ़िया साड़ी बनाकर ले जाते हैं पर बड़े व्यापारियों द्वारा उसका उचित मूल्य उन्हें नहीं दिया जाता। गरीब बुनकर अपनी बनायीं साड़ी के हज़ार ऐब गिना दिये जाने के बाद कुछ कहने लायक नही बचता। एक तो साड़ी के पैसे कम मिलते हैं उस पर से चेक मिला तो वह भी महीने भर बाद ही भुनता है। साड़ी व्यवसाय से जुडी राजनीति के कारण बुनकरों का जीवन अभावग्रस्त तथा पिछड़ा है। ऋणग्रस्तता और आर्थिक बदहाली के कारण उन्हें जीवन की  मूलभूत सुविधाओं के लिए भी तरसना पड़ता है.
                                                                               अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बुनकरों के परंपरागत शोषण की  ओर समाज का ध्यान सफलतापूर्वक खिंचा है। स्थानीय भाषा के प्रयोग के कारण  इस उपन्यास में जीवंतता बनी हुई है। भाषा की सजीवता और शिल्प के वैशिष्ट्य के कारण यह उपन्यास रचनात्मक रूप से उत्कृष्ट बन पड़ा है। लेखक स्वयं बनारस से जुड़े हुए  हैं और यहाँ की भाषा  से बखूबी परिचित हैं। जिसका स्पष्ट  प्रभाव इस उपन्यास में दिखता है।  यह लेखक का सर्जनात्मक व्यक्तित्व ही है कि जिसने समाज के हाशिये पर खड़े लोगों को अपनी रचना के केंद्र में जगह दी तथा उसे इतना प्रभावशाली बना दिया कि झीनी-झीनी बीनी चदरिया को साहित्य में प्रमुखता मिली। ताना-बाना खण्डों के माध्यम से इस व्यवसाय के प्रतीकात्मकता का भी निर्वाह हुआ है।


1- पेज -10-   झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह
2- पेज - 9 -  झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह
3- पेज- 162 - झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह
4- पेज - 190 - झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह
5- पेज - 17 - झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह


सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

samiksha

'जब उठ जाता हूँ सतह से' में कई मनोभाव की कवितायेँ है.. महानगरीय जीवन की विवशता है 'जहाँ भीड़ का अकेलापन और एकांत में शोर ' है . 'जहाँ जिस कमरे में खिड़की है' कविता में ज़िन्दगी का कोलाहल है. आज की भाग दौड़ की ज़िन्दगी में संभव नहीं मन के भीतर झांक पाना एक अँधेरी दौड़ है जिस तरफ सब भागे जा रहे हैं। विचारों का खोखलापन है जिससे चेतना घुट रही है।
             अधिकांश कवितायेँ स्त्री केन्द्रित हैं।स्त्री-पुरुष के माध्यम से उनके अंतर्संबंधों को व्याख्यायित करती कवितायेँ हैं। इन कविताओं में पुरुष कहीं देह पर हावी है कहीं मन पर --
         खुबसूरत औरत का मूल्य होता है
         खुबसूरत औरतें नहीं शरीर होता है...
इस मूल्य का निर्धारण पुरुष ही करता है। कहीं प्रेमी  होकर तो कहीं पति होकर।  'हक़  था तुम्हारा ' ऐसी ही कविता है जहाँ परिवार के स्वरुप को बचाए रखना उसका कर्त्तव्य है। उसे सतत प्रयासरत रहना पड़ता है इस दिशा मे.
      'स्त्री की वास्तविक स्थिति का मंथन' में  स्त्री-विमर्श  पर व्यंग्य है ,जहाँ  मुक्ति का नाम देकर छलावा किया जा रहा है। स्त्री विमर्श का झंडा उठाये लोग ही सर्वाधिक शोषण करते मिल जायेंगे। स्वरूप भर बदला है , साध्य और साधन वही हैं। इसी तरह 'स्त्री सन्तति' कविता में स्त्री रूप में बसे उस शोषण तंत्र की चर्चा है जो पीढ़ियों से हस्तांतरित होती आयी है। कविताओं का अर्थ खोलने के लिए उन्हें बार-बार पढने की जरुरत होती है ,पर कवि ने बहुत सी कवितायेँ 'कहन शैली' में कह दिया है। जो भाव जैसा आया उसे वैसा ही व्यक्त कर दिया गया है,जान बूझ कर शब्द तलाशे नहीं गये।
'बहुत तेज़ हो रही थी बारिश' कविता में समाज में बढ़ रही संवेदनशीलता के कारणों को तलाशने की कोशिश है। कुछ ख़राब लोगों की वजह से एक-दूसरे की मदद करने की संभावना ख़त्म होती जा रही है। कई बार मदद करने वाले की नियत पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता है।
                                  कवि  के पास एक आईना है जिसमे वह बार-बार शक्ल देखता है 'जितनी बार देखता हूँ शीशे में अपनी शक्ल सुन्दर लगता है--लेकिन अपर्याप्त  ' .कभी वह दूसरों के  आईना न  देखने को उनकी निर्लज्जता से जोड़ते नज़र आते हैं. यानि समाज में संकोच कम हुआ है गलत कामों के प्रति। आईना  मुहावरे की तरह प्रयुक्त हुआ है। 
                      'दुःख दूर न हुए ' कविता में स्कूली लड़के से लेकर नौकरी पाए युवा के मनोभावों को व्यक्त किया गया है। किस तरह उम्र के हर पड़ाव पर जिंदगी की जद्दोजहद चलती रहती है। समय बदलने के साथ समस्याओं का स्वरूप भर बदलता है।  चिर स्थायी हैं समस्याएँ। शहरी जीवन के फ्रेम में सेट होना बेबसी है। किस्तों में जाती तनख्वाह और गाँव में बाट जोहती सपनीली आँखों के बीच तारतम्य बिठाना मुश्किल है।

साहित्य का सीधा सरोकार अनुभव से है। अनुभव का यह सिरा भीतर से बाहर तक है। कवि का अपना अनुभव है जो यथार्थ से जुड़ता है। आस-पास के रिश्ते इस यथार्थ का हिस्सा हैं।  रिश्तों की अहमियत  उनके पास रहने पर नहीं होती।  पिता अनायास ही शक्तिमान हो उठता है स्मृतियों में. मासूम सपनों  के बोझ से दबा पिता ...
                    जीते जी पिता को
                    नहीं समझ पाया जो
                आज तर्पण करते हुए कर रहा हूँ महसूस
                 कितना बेबस है पिता होना।

'  माँ को कभी सीरियसली लिया ही नहीं ' कविता में हालाँकि सीरियसली शब्द खटकता है। . लेकिन अंग्रेजी के शब्द इतने घुल-मिल गये हैं हिंदी से कि उन्हें अलग  कर चला नहीं जा सकता।  शब्द से इतर यह कविता आम संवेदना युक्त है. माँ सहजता से उपलब्ध होती है। उसका स्पर्श जीवन के कठिनतम क्षणों में राहत देता है।


'पाठक दंपत्ति बाज़ार में ' शीर्षक कविता महानगरीय जीवन की सच्चाई है। EMI के इस दौर में पत्नी को आकर्षित करता बाज़ार है तो पति का  उन इच्छाओं से पलायन है।  यह पलायन मज़बूरी भी  है.
निष्कर्षतः इस कविता संग्रह में पिता की बेबसी है तो बेटे की महानगरीय चिंता है। प्रेम, देह ,स्त्री ,जीवन-मूल्य और उन सबके बीच से गुजरती कविता है। इस संग्रह में नदी, कितना बेबस होना है पिता होना,पाठक दंपत्ति बाज़ार में , खुबसूरत औरत का शरीर खुबसूरत होता है आदि विशेष उल्लेखनीय कविताएँ  हैं.
( जैसा मैंने महसूस किया …अपनी समझ के अनुसार

रविवार, 29 सितंबर 2013

एक दो तीन चार करके
वे सत्ता की सीढियाँ
 चमकाने में ..
चढ़ा दिए गए सूली पर
और जो बाकी बचे हैं
वे जूते चमकाने में लगे  हैं .

कुर्सियाँ फिर उठ खड़ी होंगी
किसान ,जवान और जनता की शान में
चुनाव तक सट्टा बाज़ार जगमगाएगा

 लोग फिर हरहरायेंगे गेहूं की बाली की तरह
फसल कटने तक उत्सव चलता रहेगा 
लोकतंत्र के प्रहरी  अपने महलों को लौट जायेंगे

देखते-देखते लोकतंत्र शब्दों तक सिमट जायेगा .
जो हो रहा था ,वही आगे भी दोहराया जायेगा

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

लुत्फ़ है लफ़्जये कहानी में

बहती गंगा एक क्लासिक कृति है। इतिहास के आईने से काशी दर्शन या काशी के आईने से इतिहास वर्णन। दोनों में सफल है यह कृति। बहती गंगा (1952) हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में अपने शिल्प को लेकर ख़ासी चर्चित रही है। इसमें काशी के इतिहास को अलग - अलग कहानियों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। सभी कहानियाँ अपने स्वरुप में तो अलग है किंतु इतिहास तथा अनुश्रुतियों के मिश्रण पर आधारित ये सभी एक साथ जुडी हुई भी प्रतीत होती हैं। बहती गंगा को लेकर यह प्रश्न उठता रहा है कि इसे कहानी संग्रह माना जाये या उपन्यास। हालांकि लेखक ने स्वयं इसका निर्णय आलोचकों पर छोड़ दिया है। शिवप्रसाद मिश्र 'रूद्र' इसे किसी विधा में फिट करने के बजाय इसका स्वतंत्र मूल्यांकन कराना ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। वे कहते भी हैं -''विधाएँ साहित्य की जननी नहीं हैं,साहित्य ही विधाओं का जनक है। अधिकांश इतिहासकारों और प्रकाशक ने इसे अत्यंत सघन भाषा,जीवंत चित्रों अनूठी शैली के साथ आख्यान और किंवदन्तियों का अद्भुत मिश्रण वाला उपन्यास माना है।
साहित्य समाज का इतिहास होता है और जीवन का भी। मानव जाति के उत्तरोत्तर विकास को व्यक्त करने का माध्यम है भाषा। समाज और भाषा का  विकास साथ- साथ चलता है। उपन्यास इन दोनों के विकास को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। उपन्यासकार सजगता तथा गहराई के साथ इतिहास में पैठ बनाता है और भविष्य में दखल करता है। बहती गंगा का लेखक भी कुछ इसी तरह आगे बढ़ता है। लेखक ने यथार्थ और कल्पना के मिश्रण से काशी के इतिहास को ही व्याख्यायित नहीं किया बल्कि उस संवेदना को भी उकेरा है जो काशी के रग -रग में बसी है। अलग-अलग शीर्षकों में बंटा यह उपन्यास अन्दर एक सूत्र में पिरोया हुआ है।
बहती गंगा किसी खास चरित्र या घटना को लेकर नहीं बुना  गया बल्कि काशी के सामाजिक -सांस्कृतिक ताने-बाने को केन्द्र में रखा गया है। बहती गंगा काशी के सैद्धांतिक समीकरणों को सरलीकृत करती चलती है। बहती गंगा का शिल्प जितना अलग है , उसके शीर्षक उतने ही रोचक हैं। गाइए गणपति जगबन्दन से लेकर सारी रंग डारी लाल-लाल तक इतिहास और आधुनिकता का अद्भुत मेल है। काशी के दो सौ वर्षों के इतिहास के माध्यम से शिव प्रसाद मिश्र 'रूद्र' ने मानव मन की कमजोरियों तथा उदात्तता को इस कुशलता के साथ उभारा है कि तत्कालीन समाज अपनी सामाजिक ,सांस्कृतिक और राजनीतिक सजीवता के साथ पाठक के समक्ष उपस्थित होता है। काशी के जीवन को चित्रित करने के लिए यह आवश्यक था कि उसकी लोक बानी के माध्यम से उसे अभिव्यक्त किया जाये। रूद्र जी की भाषाई कुशलता के कारण यह उपन्यास बेहद प्रभावी बन पड़ा है। उनकी भाषा का बनारसी अन्दाज़ 'घोड़े पै हौदा औ हाथी पै जीन ' में कुछ इस तरह झलका है-'' लड़िका के काहे मरले ! बोल ! ''… ए सारे से पूछs कि ई भागत काहे रहल ''.
रूद्र जी का यह उपन्यास काशी की संस्कृति और लोक जीवन का  जीवन्त दस्तावेज़ है। 1750 से 1950 तक  काशी के प्रवाहमान समय को रूद्र जी ने अनूठे प्रयोग से रोचक बना दिया है। अपने अबूझेपन के बावजूद भी यह उपन्यास हिंदी साहित्य में अलग स्थान रखता है। रूद्र जी 'आए ,आए, आए ' और अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी ' के माध्यम से काशी की साझी संस्कृति की चर्चा करना नहीं भूलते। ध्यान देने योग्य बात है कि अधिकांश कथाओं में स्त्री पात्रों के इर्द-गिर्द ही रचना की बुनावट की गयी है। 'गाइए गणपति जगबन्दन ' में रानी पन्ना हों या 'सूली ऊपर सेज़ पिया की ' में मंगला गौरी या 'सारी रंग डारी लाल-लाल की  सुधा। ये सभी प्रेम,त्याग ,क्रोध आदि को व्याख्यायित करती नज़र आती हैं। एक सचेत लेखक सामाजिक यथार्थ को अपनी रचना में प्रतिबिम्बित ही नहीं करता बल्कि उसकी पुनर्रचना भी करता है। किसी क्लासिक रचना में युगीन वास्तविकताओं का गहरा बोध होता है। रचना के हर स्तर पर चाहे वह भाषा ,शिल्प या संरचना हो ,समाज व्यक्त होता है।बहती गंगा में लेखक की सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता देखने को मिलती है।  रूद्र जी की मौलिक दृष्टि ने 'बहती गंगा' को साहित्य में विशिष्ट स्थान दिलाया। उनकी प्रयोगधर्मिता का ही परिणाम है कि 'बहती गंगा' साहित्य में अपने अलग अस्तित्व के कारण जानी जाती है।

रविवार, 21 अप्रैल 2013

जिन दरिन्दे लोगों को पांच साल की बच्ची में मासूमियत की बजाय स्त्री देह दिखता हो ,उन्हें नपुन्सक बना दिया जाना चाहिए . ये पेशेवर अपराधी नहीं ,समाज के बीच से निकले लोग है .दोष किस पर मढ़ा जाये ?क्या सरकार ,प्रशासन ,कानून, समाज सब इसके लिए दोषी नहीं .स्त्री सुरक्षा को लेकर कड़े नियम बनाने की आवश्यकता है .ऐसे नियम जिनका भय हो. सज़ा इतनी कड़ी हो कि वो गुनाहगारों और उन जैसों के लिए उदहारण बन जाये .ऐसे लोग जो ये समझते हैं कि स्त्री देह उनकी वासना को मिटाने के लिए है ,उन्हें यह बताया जाना जरुरी है कि देह से आगे भी एक दुनिया है .आखिर क्या वजह है इस हैवानियत की, क्यों एक स्त्री को बार-बार पुरुष के मानसिक, शारीरिक  यंत्रणा का शिकार होना पड़ता है . स्त्री बाज़ारवाद का शिकार हो रही है उसे उपभोग की वस्तु के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है .बाज़ार ने  मूल्यों को बेदखल कर दिया है .सिर्फ़ यह कह देने भर से समस्या का हल नही हो सकता .ध्यान देने की बात है कि शिक्षित वर्ग में सेक्स जहाँ स्वेछाचारिता पर निर्भर है ,वहीँ   दिल्ली में हुए ये जघन्यकृत्य करने वाले उस तबके से आते हैं जहाँ गरीबी है,जो किसी तरह अपना परिवार चलाते हैं . दामिनी प्रकरण में शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसकी चेतना को उस ( बलात्कार ) कांड ने झकझोरा न हो .इस बर्बरता पूर्ण कृत्य ने पूरे मानव समाज को शर्मसार किया .. वहीं सोचने पर मजबूर किया कि कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था ,समाज-कानून व्यवस्था , आधुनिकता इन सब पर पुनर्विचार की आवश्यकता है , .मानव- मूल्यों के चुक जाने की वजह क्या है ?? .इन सवालों से हर व्यक्ति कहीं न कहीं रूबरू हुआ .ऐसा पितृसत्तात्मक समाज जो मासूम लड़कियों को सुरक्षा न दे पाए ,बदल दिए जाने की आवश्यकता है .नहीं चाहिए तुम्हारा नाम ,,नहीं चाहिए तुम्हारा बनाया मर्दवादी समाज ..हालाँकि सोशल साइट्स  ने पिछले दिनों बड़ी भूमिका निभाई है ,ऐसे किसी आन्दोलन में .ये  समाज के संवेदनशील लोगों को एकजुट कर पाने में समर्थ हुआ है ।  ऐसा नहीं कि इससे पहले ऐसी घटनाएं नहीं हुई या आगे नहीं होंगी पर इस घटना ने सबका ध्यान खींचा . देश भर में हुए छोटे -बड़े समूहों के प्रदर्शन और शोक सभाओं के माध्यम से जनता की भावना  सशक्त प्रतिरोध के रूप में दर्ज हुई  .सत्ता के नकारात्मक रुख और कानून की खामियों ने हर वर्ग को आंदोलित किया .पर ध्यान रखना होगा कि हम मात्र किसी भीड़ का हिस्सा होकर न रह जाएँ . अंशकालिक हलचल बनाने के बजाय जो सवाल उठे उसे हल किया जाना जरुरी है. समाज को आत्म-मंथन की आवश्यकता है और अपनी शक्ति का सही उपयोग करने की भी .

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर अभी से माहौल बनना शुरू हो गया है .स्वाभाविक भी है क्योंकि मीडिया में जिन दो नामो की चर्चा ज़ोरों पर है ,वे दोनों ही सार्वजनिक मंच पर इन दिनों उपलब्ध रहे .इलेक्ट्रानिक मीडिया में इन्हें लेकर इतनी बहसें होती रहती हैं कि लगने लगा है कि ये चुनाव दो पार्टियों की बजाय दो शख्सियतों के बीच  सिमट कर रह गया है. मोदी बनाम राहुल का व्यक्तित्व पार्टी,विचारधारा पर हावी दिख रहा है . दोनों में तुलना होना आवश्यक भी है और समय की मांग भी . देश सुदृढ़ नेतृत्व क्षमता के आभाव से जूझ रहा है. भ्रस्टाचार में आकंठ डूबा देश आस भरी नज़रों से युवाओं की ओर  देख रहा है . राजनीति में युवा होने  का आशय विचारों से उर्जावान होना है . मोदी और राहुल  कई पैमाने पर आँके जा रहे हैं .विश्लेषण का दौर जारी है .दोनों की भाषा ,संवाद-कौशल व्यक्तित्व यहाँ तक कि पहनावा भी चर्चा में रहता है.
      लोकतंत्र नेतृत्व में आस्था रखता है . भारत जैसे विशाल लोकतान्त्रिक  देश को एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो नयी सोच दे सके .जो देश की क्षमताओं का विकास कर सके . राहुल गाँधी का राजनीति में प्रवेश एक नयी उम्मीद लेकर आया था .लग रहा था मानो वे राजनीति का युवा संस्करण पेश करेंगे। राहुल ने उत्तर प्रदेश के चुनावों में जम  कर मेहनत  की ,खूब पसीना बहाया .गाँव -गाँव घुमे  पर वो नहीं कर सके जो  उम्मीद थी .कुछ अलग करने के बजाय वे घिसी पिटी पुरातनपंथी लकीर पर ही चलते नज़र आये. लोकतंत्र में संवाद आवश्यक है .राजनीति में गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति ही राजनैतिक दांव-पेंच सही ढंग से समझ सकता है .राहुल अक्सर अपने ही बयानों के कारण राजनैतिक चक्रव्यूह में  फँस जाते हैं .जनता ने आज़ादी के बाद से कांग्रेस शासन को देखा है .पहले यह बात भले जुबान पर न आती रही हो पर जनता ने अब सवाल पूछना शुरू किया है कि आखिर इतने वर्षों के शासन के बाद देश को क्या हासिल हुआ . अब भी बहुत से क्षेत्र मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं . सवाल इसलिए भी उठने लगे हैं क्योंकि कांग्रेस ने लम्बे समय तक सत्ता सुख भोगा है . यू पी ए 1 और 2 का कार्यकाल बड़े-बड़े घोटालों के कारण जाना जायेगा . इन घोटालों में गठबंधन सरकार की क्या भूमिका है . मनमोहन सिंह जिनकी छवि रिमोट प्रधानमंत्री की है। क्या  इन सबके लिए वे जिम्मेदार हैं  या रिमोट चलाने वाली शक्तियां .कांग्रेस ने सी बी आई का भरपूर उपयोग किया अपनी सरकार बचाए रखने के लिए .सपा ,बसपा जैसी पार्टियों को बन्दर नाच नचाने में माहिर कांग्रेस को सत्ता पर काबिज़ रहने का मंत्र पता है . दोनों पार्टियाँ भले ही समर्थन का कारण  साम्प्रदायिक शक्तियों को दूर सत्ता से दूर रखना बता रही हों , पर ये राग अब पुराना पड़ चूका है .जनता भी इनकी मज़बूरी समझ रही है . इस निष्क्रिय सरकार को बचाए रखने का श्रेय उत्तर प्रदेश को जाता है . राजनीति की सबसे उर्वर जमीन उत्तर प्रदेश इस पूरे प्रकरण में बंज़र नज़र आती है . सरकारें अब वोट बैंक की राजनीति के तहत पार्टियों की तरह काम करने लगी हैं नीतियाँ ,योजनायें तक अपने -अपने वोटरों को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं .भारत का राजनैतिक -आर्थिक तंत्र ध्वस्त हो चूका है . सत्ता के दो केंद्र और दोनों में तारतम्यता का अभाव देश को गर्त में ढकेल रहा है .राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय हर मुद्दे पर सरकार असफल रही है .जिन दो लोगों के हाथ सत्ता की चाभी है राहुल उनमे से एक हैं . बेहतरीन अनुभव के लिए दो कार्यकाल थे ,जिसे उन्होंने यूँ ही गँवा दिया .
                                राहुल , जो कांग्रेस पार्टी के युवा चेहरा माने जाते हैं और प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं .वे तमाम मुद्दों से बचते फिरते हैं .उनके विचार खुल के सामने नहीं आ पाते .भारतीय उद्योग परिसंघ में दिया गया उनका भाषण कन्फ्यूज्ड और अपरिपक्व था . वे चाहते तो भ्रस्टाचार ,बेरोजगारी ,शिक्षा ,व्यावसायिक समझ आदि पर अपनी बात रख सकते थे .वे देश के सामने अपना विज़न रखते . मनमोहन सिंह से आगे बढ़कर वे क्या कर सकते हैं .121 करोड़ जैसी विशाल जनसंख्या को सँभालने के लिए मौलिक सोच की ज़रूरत है . लिखी हुई स्पीच को लाल किले से बोलने तक सीमित रखा जाये तो बेहतर  है . भारत का इतिहास ऐसे नेतृत्व का गवाह रहा है और उसने ऐसे नेतृत्व को स्वीकारा भी है जो अपनी विचारधारा तथा स्पष्टवादिता के लिए जाने गए हैं .जमीनी राजनीति से न जुड़ा होना भी राहुल के  अस्पष्ट नज़रिया का कारण है . गाँधी नाम का दबाव उनपर देखा जा सकता है .इस  थोपी हुई राजनीति से असफलता ही हाथ आएगी . जब तक वे इन दबावों से मुक्त नहीं होते ,खुद को साबित नहीं कर पाएंगे . मोदी बनाम राहुल में मोदी हर क्षेत्र में उन पर भारी दिखते हैं .मोदी के पास अनुभव है और वक्तृता शैली भी . जनता को उनका भाषण पसंद आता है . या यूँ कहें कि वे वही बोलते हैं जो जनता को पसंद है .मोदी एक ऐसे नेता बनकर उभरे हैं जिसके हर कार्य -कलाप पर नज़र रहती है .वो देशी -विदेशी मीडिया की आलोचनाओं  का शिकार रहते हैं .जो विविध मंचो पर गुजरात के विकास  मॉडल के साथ उपस्थित हैं . मोदी अपनी आलोचनाओं को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने का तरीका जानते हैं .                    
इस भ्रष्ट तंत्र के सामने चुनौती है कि वे एक ऐसी संस्कृति विकसित करें जो पारदर्शिता के लिए कटिबद्ध हों .जो जनता का वापस लोकतंत्र में भरोसा स्थापित कर सकें .
 इन दोनों  नेताओं के सामने भी चुनौती है कि वे देश की युवा क्षमताओं को उनके समुचित  विकास का भरोसा दिला सकें 2014 के चुनाव राजनीति  के इन धुर विरोधी ध्रुवों की अग्नि परीक्षा साबित होंगे .

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

जिस्म बेचता है कोई ईमान बेचता है
बाज़ार में बैठा कोई भगवान बेचता है
तोड़ देती है किसी को भूख इस कदर
बेबस हो कोई संतान बेचता है
' सच '
जब तक
'सच' साबित नही हो जाता ...
हम सब


 कठघरे  में  रहेंगे ...

और 'झूठ' 
घूमता पाया जायेगा
साहेब की
कोठियों में ..

लाल बत्ती की
आड़ में ..

झूठ और सच का खेल
जनतंत्र में चलता रहेगा

आदमी हाथ मलता रहेगा