शनिवार, 27 जून 2009

साथ

मैं और तुम किसी नदी के दो किनारे

जो मिल के भी नही मिलते

जी लेते हैं एक-दुसरे को देख कर

इस एहसास के साथ की हम दोनों साथ हैं

साथ हैं बस साथ होने के लिए

अपने-अपने टूटे सपनों को आंखों में लिए

फ़िर एक नया सपना देखते हैं

टूट जाने के लिए.

गुरुवार, 11 जून 2009

महिला आरक्षण के बहाने एक बहस

महिला आरक्षण विधेयक पास हो या न हो लेकिन एक नई बहस का जन्म जरुर हो गया है की क्या महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए ?? इस बहस की शुरुआत तभी हो गई थी जब लोक सभा अध्यक्ष के रूप में मीरा कुमार को चुना गया .हालाकि मीरा कुमार का चुना जाना हमारे लिए एक ऐतिहासिक घटना है .मीरा कुमार एक खास वर्ग से आती हैं ,ध्यान दीजियेगा ....एक खास वर्ग से... महिला आरक्षण लागू होने से क्या उन महिलाओं को भी लाभ होगा जो निचले तबके से आती हैं ...नही ..यह लाभ केवल उन लोगों को होगा जो पहले से ही मजबूत स्थिति में हैं .अतः सरकार को चाहिए की महिला आरक्षण के बजाय ...ऐसी व्यवस्था करे ताकि देश की हर महिला शिक्षित हो और आत्म-निर्भर हो सके.
अरुणा आसफ अली जो स्वयं महिलाओं की कई संस्थाए चलाती थी ,इस बात की पक्षधर थीं की महिलाओं को कार्य-क्षेत्र में आरक्षण न दिया जाए.आरक्षण देने से उनमे प्रतियोगिता की भावना नही रहेगी।
आरक्षण एक बैसाखी की तरह है और मुझे नही लगता की हमें किसी बैसाखी की जरुरत है .



बुधवार, 10 जून 2009

आज़ादी

क्या हैं इस आज़ादी के मायने

घर की दहलीज़ बस

उसके अंदर ही है सीमा तुम्हारी

वहां तक जितनी आज़ादी चाहिए

हासिल है तुम्हे

क्या समाज कभी यह समझ पायेगा

उसके बाहर भी है दुनिया हमारी

पर समाज क्या ? भय का नाम है समाज

यह बंधन तो हमारे अपनों ने दिए हैं

वे जो हैं हमारे करीब या कहूँ परिवार

जो स्त्री के विविध नामो में बसे हैं आस-पास

जिनके लिए आज़ादी बस रसोई में कुछ भी
बनाने का नाम है.