जिन दरिन्दे लोगों को पांच साल की बच्ची में मासूमियत की
बजाय स्त्री देह दिखता हो ,उन्हें नपुन्सक बना दिया जाना चाहिए . ये पेशेवर
अपराधी नहीं ,समाज के बीच से निकले लोग है .दोष किस पर मढ़ा जाये ?क्या
सरकार ,प्रशासन ,कानून, समाज सब इसके लिए दोषी नहीं .स्त्री सुरक्षा को
लेकर कड़े नियम बनाने की आवश्यकता है .ऐसे नियम जिनका भय हो. सज़ा इतनी कड़ी
हो कि वो गुनाहगारों और उन जैसों के लिए उदहारण बन जाये .ऐसे लोग जो ये
समझते हैं कि स्त्री देह उनकी वासना को मिटाने के लिए है ,उन्हें यह बताया
जाना जरुरी है कि देह से आगे भी एक दुनिया है .आखिर क्या वजह है इस
हैवानियत की, क्यों एक स्त्री को बार-बार पुरुष के मानसिक, शारीरिक
यंत्रणा का शिकार होना पड़ता है . स्त्री बाज़ारवाद का शिकार हो रही है उसे
उपभोग की वस्तु के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है .बाज़ार ने मूल्यों को
बेदखल कर दिया है .सिर्फ़ यह कह देने भर से समस्या का हल नही हो सकता .ध्यान
देने की बात है कि शिक्षित वर्ग में सेक्स जहाँ स्वेछाचारिता पर निर्भर है
,वहीँ दिल्ली में हुए ये जघन्यकृत्य करने वाले उस तबके से आते हैं जहाँ
गरीबी है,जो किसी तरह अपना परिवार चलाते हैं . दामिनी प्रकरण में शायद ही
कोई व्यक्ति होगा जिसकी चेतना को उस ( बलात्कार )
कांड ने झकझोरा न हो .इस बर्बरता पूर्ण कृत्य ने पूरे मानव समाज को शर्मसार
किया .. वहीं सोचने पर मजबूर किया कि कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था
,समाज-कानून व्यवस्था , आधुनिकता इन सब पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ,
.मानव- मूल्यों के चुक जाने की वजह क्या है ?? .इन सवालों से हर व्यक्ति
कहीं न कहीं रूबरू हुआ .ऐसा पितृसत्तात्मक समाज जो मासूम लड़कियों को
सुरक्षा न दे पाए ,बदल दिए जाने की आवश्यकता है .नहीं चाहिए तुम्हारा नाम
,,नहीं चाहिए तुम्हारा बनाया मर्दवादी समाज ..हालाँकि सोशल साइट्स ने पिछले दिनों बड़ी भूमिका निभाई है
,ऐसे किसी आन्दोलन में .ये समाज के संवेदनशील लोगों को एकजुट कर पाने में
समर्थ हुआ है । ऐसा नहीं कि इससे पहले ऐसी घटनाएं नहीं हुई या आगे नहीं
होंगी पर इस घटना ने सबका ध्यान खींचा . देश भर में हुए छोटे -बड़े समूहों
के प्रदर्शन और शोक सभाओं के माध्यम से जनता की भावना सशक्त प्रतिरोध के
रूप में दर्ज हुई .सत्ता के नकारात्मक रुख और कानून की खामियों ने हर वर्ग
को आंदोलित किया .पर ध्यान रखना होगा कि हम मात्र किसी भीड़ का हिस्सा होकर
न रह जाएँ . अंशकालिक हलचल बनाने के बजाय जो सवाल उठे उसे हल किया जाना
जरुरी है. समाज को आत्म-मंथन की आवश्यकता है और अपनी शक्ति का सही उपयोग
करने की भी .
रविवार, 21 अप्रैल 2013
बुधवार, 10 अप्रैल 2013
2014
के लोकसभा चुनाव को लेकर अभी से माहौल बनना शुरू हो गया है .स्वाभाविक भी
है क्योंकि मीडिया में जिन दो नामो की चर्चा ज़ोरों पर है ,वे दोनों ही
सार्वजनिक मंच पर इन दिनों उपलब्ध रहे .इलेक्ट्रानिक मीडिया में इन्हें
लेकर इतनी बहसें होती रहती हैं कि लगने लगा है कि ये चुनाव दो पार्टियों की
बजाय दो शख्सियतों के बीच सिमट कर रह गया है. मोदी बनाम राहुल का
व्यक्तित्व पार्टी,विचारधारा पर हावी दिख रहा है . दोनों में तुलना होना
आवश्यक भी है और समय की मांग भी . देश सुदृढ़ नेतृत्व क्षमता के आभाव से जूझ
रहा है. भ्रस्टाचार में आकंठ डूबा देश आस भरी नज़रों से युवाओं की ओर देख
रहा है . राजनीति में युवा होने का आशय विचारों से उर्जावान होना है .
मोदी और राहुल कई पैमाने पर आँके जा रहे हैं .विश्लेषण का दौर जारी है
.दोनों की भाषा ,संवाद-कौशल व्यक्तित्व यहाँ तक कि पहनावा भी चर्चा में
रहता है.
लोकतंत्र नेतृत्व में आस्था रखता है . भारत जैसे विशाल लोकतान्त्रिक देश को एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो नयी सोच दे सके .जो देश की क्षमताओं का विकास कर सके . राहुल गाँधी का राजनीति में प्रवेश एक नयी उम्मीद लेकर आया था .लग रहा था मानो वे राजनीति का युवा संस्करण पेश करेंगे। राहुल ने उत्तर प्रदेश के चुनावों में जम कर मेहनत की ,खूब पसीना बहाया .गाँव -गाँव घुमे पर वो नहीं कर सके जो उम्मीद थी .कुछ अलग करने के बजाय वे घिसी पिटी पुरातनपंथी लकीर पर ही चलते नज़र आये. लोकतंत्र में संवाद आवश्यक है .राजनीति में गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति ही राजनैतिक दांव-पेंच सही ढंग से समझ सकता है .राहुल अक्सर अपने ही बयानों के कारण राजनैतिक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं .जनता ने आज़ादी के बाद से कांग्रेस शासन को देखा है .पहले यह बात भले जुबान पर न आती रही हो पर जनता ने अब सवाल पूछना शुरू किया है कि आखिर इतने वर्षों के शासन के बाद देश को क्या हासिल हुआ . अब भी बहुत से क्षेत्र मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं . सवाल इसलिए भी उठने लगे हैं क्योंकि कांग्रेस ने लम्बे समय तक सत्ता सुख भोगा है . यू पी ए 1 और 2 का कार्यकाल बड़े-बड़े घोटालों के कारण जाना जायेगा . इन घोटालों में गठबंधन सरकार की क्या भूमिका है . मनमोहन सिंह जिनकी छवि रिमोट प्रधानमंत्री की है। क्या इन सबके लिए वे जिम्मेदार हैं या रिमोट चलाने वाली शक्तियां .कांग्रेस ने सी बी आई का भरपूर उपयोग किया अपनी सरकार बचाए रखने के लिए .सपा ,बसपा जैसी पार्टियों को बन्दर नाच नचाने में माहिर कांग्रेस को सत्ता पर काबिज़ रहने का मंत्र पता है . दोनों पार्टियाँ भले ही समर्थन का कारण साम्प्रदायिक शक्तियों को दूर सत्ता से दूर रखना बता रही हों , पर ये राग अब पुराना पड़ चूका है .जनता भी इनकी मज़बूरी समझ रही है . इस निष्क्रिय सरकार को बचाए रखने का श्रेय उत्तर प्रदेश को जाता है . राजनीति की सबसे उर्वर जमीन उत्तर प्रदेश इस पूरे प्रकरण में बंज़र नज़र आती है . सरकारें अब वोट बैंक की राजनीति के तहत पार्टियों की तरह काम करने लगी हैं नीतियाँ ,योजनायें तक अपने -अपने वोटरों को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं .भारत का राजनैतिक -आर्थिक तंत्र ध्वस्त हो चूका है . सत्ता के दो केंद्र और दोनों में तारतम्यता का अभाव देश को गर्त में ढकेल रहा है .राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय हर मुद्दे पर सरकार असफल रही है .जिन दो लोगों के हाथ सत्ता की चाभी है राहुल उनमे से एक हैं . बेहतरीन अनुभव के लिए दो कार्यकाल थे ,जिसे उन्होंने यूँ ही गँवा दिया .
राहुल , जो कांग्रेस पार्टी के युवा चेहरा माने जाते हैं और प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं .वे तमाम मुद्दों से बचते फिरते हैं .उनके विचार खुल के सामने नहीं आ पाते .भारतीय उद्योग परिसंघ में दिया गया उनका भाषण कन्फ्यूज्ड और अपरिपक्व था . वे चाहते तो भ्रस्टाचार ,बेरोजगारी ,शिक्षा ,व्यावसायिक समझ आदि पर अपनी बात रख सकते थे .वे देश के सामने अपना विज़न रखते . मनमोहन सिंह से आगे बढ़कर वे क्या कर सकते हैं .121 करोड़ जैसी विशाल जनसंख्या को सँभालने के लिए मौलिक सोच की ज़रूरत है . लिखी हुई स्पीच को लाल किले से बोलने तक सीमित रखा जाये तो बेहतर है . भारत का इतिहास ऐसे नेतृत्व का गवाह रहा है और उसने ऐसे नेतृत्व को स्वीकारा भी है जो अपनी विचारधारा तथा स्पष्टवादिता के लिए जाने गए हैं .जमीनी राजनीति से न जुड़ा होना भी राहुल के अस्पष्ट नज़रिया का कारण है . गाँधी नाम का दबाव उनपर देखा जा सकता है .इस थोपी हुई राजनीति से असफलता ही हाथ आएगी . जब तक वे इन दबावों से मुक्त नहीं होते ,खुद को साबित नहीं कर पाएंगे . मोदी बनाम राहुल में मोदी हर क्षेत्र में उन पर भारी दिखते हैं .मोदी के पास अनुभव है और वक्तृता शैली भी . जनता को उनका भाषण पसंद आता है . या यूँ कहें कि वे वही बोलते हैं जो जनता को पसंद है .मोदी एक ऐसे नेता बनकर उभरे हैं जिसके हर कार्य -कलाप पर नज़र रहती है .वो देशी -विदेशी मीडिया की आलोचनाओं का शिकार रहते हैं .जो विविध मंचो पर गुजरात के विकास मॉडल के साथ उपस्थित हैं . मोदी अपनी आलोचनाओं को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने का तरीका जानते हैं .
इस भ्रष्ट तंत्र के सामने चुनौती है कि वे एक ऐसी संस्कृति विकसित करें जो पारदर्शिता के लिए कटिबद्ध हों .जो जनता का वापस लोकतंत्र में भरोसा स्थापित कर सकें . इन दोनों नेताओं के सामने भी चुनौती है कि वे देश की युवा क्षमताओं को उनके समुचित विकास का भरोसा दिला सकें 2014 के चुनाव राजनीति के इन धुर विरोधी ध्रुवों की अग्नि परीक्षा साबित होंगे .
लोकतंत्र नेतृत्व में आस्था रखता है . भारत जैसे विशाल लोकतान्त्रिक देश को एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो नयी सोच दे सके .जो देश की क्षमताओं का विकास कर सके . राहुल गाँधी का राजनीति में प्रवेश एक नयी उम्मीद लेकर आया था .लग रहा था मानो वे राजनीति का युवा संस्करण पेश करेंगे। राहुल ने उत्तर प्रदेश के चुनावों में जम कर मेहनत की ,खूब पसीना बहाया .गाँव -गाँव घुमे पर वो नहीं कर सके जो उम्मीद थी .कुछ अलग करने के बजाय वे घिसी पिटी पुरातनपंथी लकीर पर ही चलते नज़र आये. लोकतंत्र में संवाद आवश्यक है .राजनीति में गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति ही राजनैतिक दांव-पेंच सही ढंग से समझ सकता है .राहुल अक्सर अपने ही बयानों के कारण राजनैतिक चक्रव्यूह में फँस जाते हैं .जनता ने आज़ादी के बाद से कांग्रेस शासन को देखा है .पहले यह बात भले जुबान पर न आती रही हो पर जनता ने अब सवाल पूछना शुरू किया है कि आखिर इतने वर्षों के शासन के बाद देश को क्या हासिल हुआ . अब भी बहुत से क्षेत्र मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं . सवाल इसलिए भी उठने लगे हैं क्योंकि कांग्रेस ने लम्बे समय तक सत्ता सुख भोगा है . यू पी ए 1 और 2 का कार्यकाल बड़े-बड़े घोटालों के कारण जाना जायेगा . इन घोटालों में गठबंधन सरकार की क्या भूमिका है . मनमोहन सिंह जिनकी छवि रिमोट प्रधानमंत्री की है। क्या इन सबके लिए वे जिम्मेदार हैं या रिमोट चलाने वाली शक्तियां .कांग्रेस ने सी बी आई का भरपूर उपयोग किया अपनी सरकार बचाए रखने के लिए .सपा ,बसपा जैसी पार्टियों को बन्दर नाच नचाने में माहिर कांग्रेस को सत्ता पर काबिज़ रहने का मंत्र पता है . दोनों पार्टियाँ भले ही समर्थन का कारण साम्प्रदायिक शक्तियों को दूर सत्ता से दूर रखना बता रही हों , पर ये राग अब पुराना पड़ चूका है .जनता भी इनकी मज़बूरी समझ रही है . इस निष्क्रिय सरकार को बचाए रखने का श्रेय उत्तर प्रदेश को जाता है . राजनीति की सबसे उर्वर जमीन उत्तर प्रदेश इस पूरे प्रकरण में बंज़र नज़र आती है . सरकारें अब वोट बैंक की राजनीति के तहत पार्टियों की तरह काम करने लगी हैं नीतियाँ ,योजनायें तक अपने -अपने वोटरों को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं .भारत का राजनैतिक -आर्थिक तंत्र ध्वस्त हो चूका है . सत्ता के दो केंद्र और दोनों में तारतम्यता का अभाव देश को गर्त में ढकेल रहा है .राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय हर मुद्दे पर सरकार असफल रही है .जिन दो लोगों के हाथ सत्ता की चाभी है राहुल उनमे से एक हैं . बेहतरीन अनुभव के लिए दो कार्यकाल थे ,जिसे उन्होंने यूँ ही गँवा दिया .
राहुल , जो कांग्रेस पार्टी के युवा चेहरा माने जाते हैं और प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं .वे तमाम मुद्दों से बचते फिरते हैं .उनके विचार खुल के सामने नहीं आ पाते .भारतीय उद्योग परिसंघ में दिया गया उनका भाषण कन्फ्यूज्ड और अपरिपक्व था . वे चाहते तो भ्रस्टाचार ,बेरोजगारी ,शिक्षा ,व्यावसायिक समझ आदि पर अपनी बात रख सकते थे .वे देश के सामने अपना विज़न रखते . मनमोहन सिंह से आगे बढ़कर वे क्या कर सकते हैं .121 करोड़ जैसी विशाल जनसंख्या को सँभालने के लिए मौलिक सोच की ज़रूरत है . लिखी हुई स्पीच को लाल किले से बोलने तक सीमित रखा जाये तो बेहतर है . भारत का इतिहास ऐसे नेतृत्व का गवाह रहा है और उसने ऐसे नेतृत्व को स्वीकारा भी है जो अपनी विचारधारा तथा स्पष्टवादिता के लिए जाने गए हैं .जमीनी राजनीति से न जुड़ा होना भी राहुल के अस्पष्ट नज़रिया का कारण है . गाँधी नाम का दबाव उनपर देखा जा सकता है .इस थोपी हुई राजनीति से असफलता ही हाथ आएगी . जब तक वे इन दबावों से मुक्त नहीं होते ,खुद को साबित नहीं कर पाएंगे . मोदी बनाम राहुल में मोदी हर क्षेत्र में उन पर भारी दिखते हैं .मोदी के पास अनुभव है और वक्तृता शैली भी . जनता को उनका भाषण पसंद आता है . या यूँ कहें कि वे वही बोलते हैं जो जनता को पसंद है .मोदी एक ऐसे नेता बनकर उभरे हैं जिसके हर कार्य -कलाप पर नज़र रहती है .वो देशी -विदेशी मीडिया की आलोचनाओं का शिकार रहते हैं .जो विविध मंचो पर गुजरात के विकास मॉडल के साथ उपस्थित हैं . मोदी अपनी आलोचनाओं को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने का तरीका जानते हैं .
इस भ्रष्ट तंत्र के सामने चुनौती है कि वे एक ऐसी संस्कृति विकसित करें जो पारदर्शिता के लिए कटिबद्ध हों .जो जनता का वापस लोकतंत्र में भरोसा स्थापित कर सकें . इन दोनों नेताओं के सामने भी चुनौती है कि वे देश की युवा क्षमताओं को उनके समुचित विकास का भरोसा दिला सकें 2014 के चुनाव राजनीति के इन धुर विरोधी ध्रुवों की अग्नि परीक्षा साबित होंगे .
शनिवार, 6 अप्रैल 2013
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