बुधवार, 20 नवंबर 2013

ताने बाने पर कसी ज़िन्दगी

आंचलिक उपन्यास अर्द्धशती को पूरा कर चुका है। पिछले दो दशकों में कई उपन्यासों ने हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण और सशक्त उपस्थिति दर्ज़ कराई है। इन उपन्यासों ने हिंदी भाषा और साहित्य को नये आयाम दिए हैं। जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को इन उपन्यासों ने उदघाटित किया है। आंचलिक उपन्यासों ने सामाजिक जीवन के उन पक्षों को उजागर किया है जिन पर अमूमन ध्यान नहीं जाता। अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ' झीनी-झीनी बीनी चदरिया ' बुनकर जीवन के ऐसे ही कुछ अनछुए पहलुओं को समाज के सामने रखता है।  अपनी तमाम त्रासदियों के साथ बुनकर कैसे अपने संघर्षपूर्ण जीवन को सहेजने की कोशिश करता रहता है फिर भी अंत तक उन समस्याओं से निजात नहीं पा पाता। समाज के हाशिये पर खड़ा बुनकर अपने ही लोगों के बीच छला जाता है। इस शोषणगाथा में उसके सहयोग को कोई सामने नहीं आता। अपनी परिस्थितियों से लड़ता जूझता वह जीवन की  सीढियाँ चढ़ता जाता है।
                                        मतीन ,रऊफ चाचा ,अल्ताफ़ ,बशीर, हनीफ ,इक़बाल के माध्यम से गरीबी तथा विपन्नता में जी रहे बुनकरों के परजीवी समाज को चित्रित किया गया है। ये श्रमजीवी वर्ग के लोग अपनी हर आवश्यकता के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। अपनी परिस्थितियों से असंतुष्ट हो मतीन इस शोषण तंत्र को तोड़ने की  कोशिश करता है पर असफल होता है। यह असफलता उसे तोड़ नहीं पाती। इक़बाल जो कि मतीन का बेटा है बचपन से ही इन जाल को देखता आया है और उसे तोड़ने की  भरपूर कोशिश में लगा है। वह लोगों को एक करता है और आंदोलन की ज़मीन तैयार करता है। अपने हक़ के लिए सभी एकजुट होकर अनशन की  राह चल पड़ते हैं। युवा पीढ़ी किसी दबाव में आना नहीं चाहती।  प्रतिरोध का स्वर छित्तनपुरा के वातावरण में घुल गया है।
इस समाज का एक दूसरा पक्ष भी है जो स्त्री पत्रों के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है। अलीमुन ,नजबुनिया ,कमरून ,रेहाना आदि स्त्री पात्र परम्परागत मुस्लिम समाज के आईने की  तरह हैं। इनका शोषण हर स्तर पर है। अधिकार कोई नहीं। स्त्रियों की  स्थिति निरीह है। वे कतान  फेरें ,हांडी -चूल्ही करें ,साथ में सोयें ,बच्चे जनें और पांव दबायें। अगर इस काम में किसी तरह की हीला हवाली करें तो इस्लाम का पालन करते हुए इन्हें तलाक़ दे दो।  हर तरह से उनका उपयोग करो। जहाँ कहीं वे कम साबित हों वहीँ उनसे मुक्ति पा लो।
                              यह उपन्यास जिंदगी के झंझावातों से भरा पड़ा है। बुनकरों के मेहनत और उनकी कंगाली की गाथा है झीनी-झीनी बीनी चदरिया में।  यह लेखक की उपलब्धि है कि उसने इतना मौलिक विषय चुना और बुनकर जीवन को इतनी संजीदगी से उभारा।  महत्वपूर्ण उपन्यास बनारस के बुनकरों को लेकर लिखा गया है।  बुनकरों को केंद्र में रख कर शायद ही कोई उपन्यास लिखा गया हो।  यह उपन्यास न केवल उनके धार्मिक-सांस्कृतिक परिवेश बल्कि उनकी आर्थिक-सामाजिक विसंगतियों को भी विस्तृत फलक पर उभारता है।
                           यह उपन्यास सदी व्यवसाय से जुड़े लोगों कि विसंगतियों तथा तमाम सच्चाइयों को उजागर करता है -'' एक समाज दुनिया का है। एक समाज भारत का है। एक समाज हिन्दुओं का है। एक समाज मुसलमानों का है। और एक समाज बनारस के जुलाहों का है।  यह समाज कई अर्थों में दुनिया के हर समाज से अलग है। इस समाज के कई खण्ड हैं। '' 1 इस खंड-खंड में बंटे समाज के अलग-अलग महतो हैं।  यहाँ कुछ लोग बनारसी हैं तो कुछ मऊनाथ भंजन से यहाँ आकर बसे हैं।  दोनों पक्षों के लोग बी ग्रुप और एम ग्रुप में बंटे हैं। आपस में इनमे नोक-झोंक चलती रहती है।  इन सबकी बोली-भाषा और रीति -रिवाज़ में फ़र्क है पर मूलतः ज़िन्दगी सबकी एक ही है - मर्दों के पाँव करघे में और स्त्रियों के हाथ चरखे में।
                                            बुनकरों कि ज़िन्दगी कि त्रासदी यही है कि उनकी पीढ़ियाँ इस व्यवसाय में खप  जाती हैं। मतीन अब भी बनी पर ही बीनता है। उसके पिता भी बनी पर ही बीनते थे। मतीन को कतान  हाज़ी साहब के यहाँ से लाना पड़ता है।  हर बुनकर  की यही कहानी है उनकी इतनी हैसियत कभी नहीं हो पाती कि अपना कतान खरीद सकें ऽगर कतान न मिले तो भूखों मरने की स्थिति हो। बढ़ती महंगाई और रोजमर्रा के खर्चों से इतना पैसा भी नही जुड़ पता कि अगले दिन के लिए कुछ बचा सकें। रोज का जुगाड़ करो वर्ना सूखी रोटी भी नसीब न हो।
                                यह उपन्यास ताना-बाना खण्ड में विभाजित है, बीच में क्षेपक है जो लेखक की  स्थिति को स्पष्ट करता है। ताना खंड में बुनकरों के शोषण चक्र ,उनके दैनिक जीवन के कार्य-कलाप, शादी तथा उनके निजी जिंदगी की  दस्तक मिलती  है। बाना खंड में राजनीति में फंसे बुनकरों की  कथा है। किस तरह सरकार तक पहुँच रखने वाले लोग इस फ़िराक़ में रहते हैं कि रेशम का भाव तोडा जाये। दुनिया कि तरक्की का असर इस व्यवसाय पर भी पड़ा है।  करघों की  जगह अब पावरलूम लग गए हैं।  बुनकर एक साड़ी  चार दिन में तैयार करता है वहीँ पावरलूम से चार साड़ी एक दिन में तैयार हो जाती है।  पावरलूम से बनी साड़ी  में आमदनी भी ज्यादा है। अब बुनकरों की  गलियों से खटर -खटर  की  अंतहीन आवाज आती रहती है। झीनी-झीनी बीनी चदरिया बुनकरों की  ज़िन्दगी को पूर्णता के साथ व्याख्यायित करता है . मतीन जो इस उपन्यास के महत्वपूर्ण किरदारों में से एक है , अपने समाज के सत्य से परिचित है।  मतीन कि बीवी कि टी.बी. हो गया है। वह जानता है कि घर के काम के साथ ही अलीमुन को फेराई-भराई ,नरी -ढोटा सब करना होगा। '' बिना  किये काम  चलेगा नहीं। और रहना भी  होगा परदे में। खुली हवा में घूमने का सवाल नहीं।  समाज के नियम सत्य हैं।  उन्हें तोडना गुनाह है। छित्तनपुरा से लेकर मदनपुरा तक कहीं भी इस नियम में अंतर नहीं। '' 2
                                       लेखक ने कहीं-कहीं उन बातों  का भी जिक्र किया है जो बनारस की  संस्कृति का हिस्सा हैं।  धार्मिक आडम्बरों पर सवाल खड़ा करते हुए वे कहते हैं -''आगे-आगे दुर्गा की प्रतिमा और पीछे-पीछे शोर मचाती भीड़। एक ऐसा शोर जिसका आध्यात्म से  नहीं। ठीक इसी शोर उस वक़्त भी होता है जब ताजिये का जुलूस निकलता है। धर्म दोनों ही अवसरों पर सड़कछाप हो जाता है। वह सरे आम सिर के बल खड़ा हो जाता है. लेकिन फिर भी लोग कहते हैं यह सत्य है और  सत्य है। इस सत्य के लिए लोग कट मरते हैं. '' 3 अब्दुल बिस्मिल्लाह धार्मिक संकीर्णता पर आंशिक रूप से प्रहार किया है। इससे पता चलता है कि लेखक की धार्मिक परिदृश्य पर भी है। कोई भी समाज इन धार्मिक रूढ़ियों की  वजह से ही आगे नहीं बढ़ पाता।
                                                   मतीन का बीटा इक़बाल बुनकरों की  ज़िन्दगी के अनसुलझे सवालों से जूझता है। उसकी बेबसी कुछ इस तरह व्यक्त हुई है -'' साड़ी उसे नहीं बेचनी थी। अपनी माँ को दे देनी थी। जब वह छोटा था तभी से माँ की  लालसा को वह देखता आ रहा था। छिः दुनिया  साड़ी बीनकर देने वाले घर की  औरत को एक सस्ते दाम वाली बनारसी साड़ी भी नसीब नहीं। पूरी उम्र कट गयी सूती धोतियों और छींट की सलवार कमीज़ पर … आज कैसी चमक थी अम्मा की  आँखों में , साड़ी पर किस तरह उसकी उँगलियाँ फिर रही थीं -जैसे कोई भूखा बच्चा रोटी पर अपना हाथ फेरे। '' 4 यह बुनकर जीवन की  कड़वी सच्चाई है। लेखक ने सम्पूर्णता के साथ इस सच्चाई को अभिव्यक्ति दी है। यह लेखक की  सूक्ष्म संवेदना का परिचायक है कि उन्होंने बारीकी से उस समाज का चित्रण किया है और अछूते सन्दर्भों को भी गहनता के साथ प्रस्तुत किया है।
                         झीनी-झीनी बीनी  चदरिया के माध्यम से बिस्मिल्लाह जी ने बुनकरों के जीवन और उनके इर्द गिर्द बुने गए शोषण चक्र को उजागर किया है। उन पर किये जेन वाले शोषण अलग-अलग तरह के हैं। '' हाज़ी  साड़ी  में कोई न कोई ऐब जरुर दिखाई पड़  जाता है . कभी कहेंगे
ढाटी कड़ी लगी है तो कभी कहेंगे ढक  लगी है। हज़ार तरह के ऐब।  छीर है,ओखा बिनान है ,खेवा कड़ा  लगा है ,तार का जोड़ है ,नाका पड़ा है ,हुनर कटा-कटा पड़ा है ,तिरी पड़ी है, छापा पड़ा है,रंग ठिकहा है ,गण्डा पड़ा है,बाढ़ ख़राब है,कतान  महीन है … '' 5 बुनकर बढ़िया साड़ी बनाकर ले जाते हैं पर बड़े व्यापारियों द्वारा उसका उचित मूल्य उन्हें नहीं दिया जाता। गरीब बुनकर अपनी बनायीं साड़ी के हज़ार ऐब गिना दिये जाने के बाद कुछ कहने लायक नही बचता। एक तो साड़ी के पैसे कम मिलते हैं उस पर से चेक मिला तो वह भी महीने भर बाद ही भुनता है। साड़ी व्यवसाय से जुडी राजनीति के कारण बुनकरों का जीवन अभावग्रस्त तथा पिछड़ा है। ऋणग्रस्तता और आर्थिक बदहाली के कारण उन्हें जीवन की  मूलभूत सुविधाओं के लिए भी तरसना पड़ता है.
                                                                               अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बुनकरों के परंपरागत शोषण की  ओर समाज का ध्यान सफलतापूर्वक खिंचा है। स्थानीय भाषा के प्रयोग के कारण  इस उपन्यास में जीवंतता बनी हुई है। भाषा की सजीवता और शिल्प के वैशिष्ट्य के कारण यह उपन्यास रचनात्मक रूप से उत्कृष्ट बन पड़ा है। लेखक स्वयं बनारस से जुड़े हुए  हैं और यहाँ की भाषा  से बखूबी परिचित हैं। जिसका स्पष्ट  प्रभाव इस उपन्यास में दिखता है।  यह लेखक का सर्जनात्मक व्यक्तित्व ही है कि जिसने समाज के हाशिये पर खड़े लोगों को अपनी रचना के केंद्र में जगह दी तथा उसे इतना प्रभावशाली बना दिया कि झीनी-झीनी बीनी चदरिया को साहित्य में प्रमुखता मिली। ताना-बाना खण्डों के माध्यम से इस व्यवसाय के प्रतीकात्मकता का भी निर्वाह हुआ है।


1- पेज -10-   झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह
2- पेज - 9 -  झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह
3- पेज- 162 - झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह
4- पेज - 190 - झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह
5- पेज - 17 - झीनी-झीनी बीनी चदरिया -अब्दुल बिस्मिल्लाह


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