गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

आधा गाँव - विभाजन की त्रासदी

आधा गाँव 1947 के काल परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है।  स्वाभाविक है कि उस कालखण्ड की सामाजिक ,राजनैतिक चेतना उभरकर इस उपन्यास में आयी है। शिया मुसलमानों पर केंद्रित  उपन्यास स्वाधीनता आंदोलन तथा देश विभाजन का ऐतिहासिक साक्ष्य है। मूलतः यह एक आंचलिक उपन्यास है। जो उत्तर प्रदेश के गंगोली गाँव (जिला -गाजीपुर ) के भौगोलिक सीमा के इर्द गिर्द बुना गया है। 1947 में देश विभाजन की  भयावहता से गुजर रहा था।  आधा गाँव ऐतिहासिक दस्तावेज़ है  तत्कालीन राजनीतिक  यथार्थ की अभिव्यक्ति हुई है।  यह उपन्यास अपने समय ,समाज तथा इतिहास की प्रक्रिया से गुजरता है। आधा गाँव राही मासूम रज़ा की रचनात्मक उपलब्धि है। गंगौली उनकी सांसों में जज़्ब है। जैसे इस उपन्यास के माध्यम से गंगौली को वे दुबारा जी लेना चाहते हैं। वे  कहते चलते हैं कि   तलाश में निकले हैं और उनका  गंगौली ठहरना  पर लिखे जाने वाले उपन्यास की  भूमिका मात्र है। '' यह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफ़र है।  मैं गाज़ीपुर की  तलाश में निकला हूँ ,लेकिन पहले मैं अपनी गंगौली में ठहरूंगा।  अगर गंगौली की हक़ीक़त पकड़ में आ गयी तो मैं गाज़ीपुर का 'एपिक' लिखने का साहस करूँगा। यह उपन्यास वास्तव में उस एपिक की  भूमिका है।  '' 1
 उपन्यास की  शुरुआत में 'ऊंघता शहर ' में लेखक का गंगौली के प्रति बेहद आत्मीय सम्बोधन है। लेखक ने पाठक को एक नज़र दी है कि उसे एक गुज़रते वक़्त की  उपस्थिति के तौर पर लिया जाये। '' यह कहानी न धार्मिक है न राजनीतिक क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक ..और यह कहानी है समय ही की यह गंगौली से गुज़रने  वाले समय की  कहानी है। '' 2 गंगौली में बिखरी अलग-अलग कथाओं को उन्होंने एक जगह एकत्र कर उसे आधा गाँव के रूप में प्रस्तुत किया है। 1966 में आया यह उपन्यास मुस्लिम जीवन की  त्रासदी पर आधारित है। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद मुसलमान भारत को अपना माने या पकिस्तान के हो जाएँ इस दुविधा में आधा गाँव के लोग जूझते रहे। यथार्थ पृष्ठभूमि और वास्तविक घटनाओं में रचे-बसे परत्र हर तरह से इस उपन्यास को मज़बूती प्रदान करते हैं। गंगौली गाँव में बसे काल्पनिक पात्र  उस गाँव के वातावरण में घुले-मिले हैं। आधा गाँव में आंचलिकता परोक्ष रूप से आयी है। भौगोलिकता के लिहाज़ से इसे आंचलिक उपन्यास की  श्रेणी में ही रखा जाता है पर विभाजन के समय मुसलमानों की  सब जगह यही स्थिति थी  चाहे गंगौली का हो या लखनऊ का।

'' कहीं इस्लामू  है कि हुक़ूमत बन जैयहे !ऐ भाई, बाप-दादा की  कबुुर हियाँ है, चौक इमामबाड़ा हियाँ है ,खेत -बाड़ी हियाँ है।  हम कोनो बुरबक हैं कि तोरे पकिस्तान ज़िंदाबाद में फंस जायँ ! ''
             '' अंग्रेजों के जाने  के बाद यहाँ हिंदुओं का राज होगा ! ''
हाँ हाँ त हुए बा। तू त ऐसा हिन्दू कहि  रहियो जैसे हिन्दुवा सब भुकाऊँ हैं कि काट लिहयन . अरे ! ठाकुर कुँवरपाल सिंह त हिन्दूए रहे। झिंगुरियो  हिन्दू है। ऐ भाई, ओ परसारमुवा हिन्दूए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन  कि हम हज़रत अली का ताबूत न उठे देंगे,काहे  को कि ऊ में शिआ लोग तबर्रा पढ़त हएं ,त  परसारमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई  ताबूत उट्ठी और ऊ ताबूत उट्ठा।  तोरे जिन्ना साहब हमारा ताबूत उठवाये न आये !'' 3  यह संवाद फुन्नन मियाँ  और समीउद्दीन खां के बीच  का है , यह दर्शाता है किगंगौली का बाशिंदा हिन्दू मुसलमान नहीं कर सकता।  धर्म के आधार पर बंटने के बजाय गंगौली की एकता ज्यादा मायने रखती है। साहित्य न  केवल समाज को प्रभावित करता है बल्कि उससे प्रभावित भी होता है। 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में रामचंद्र शुक्ल ने इसी ओर इशारा करते हुए लिखा है कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की  जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरुप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आधा गाँव एक तरह से समाज के उसी चित्तवृत्ति के प्रतिबिम्बन का फल है।  तत्कालीन सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक स्थितियों के प्रभाव से यह उपन्यास भी अछूता नहीं है।
                  आधा गाँव में दो-तीन बातें मुख्य रूप से आयी हैं। भारत विभाजन ,मुस्लिम समाज तथा विभाजन के समय का अंतर्द्वंद।  यह उपन्यास उस मनः स्थिति से गुजरने की  व्यथा के रूप में वर्णित है जो उस समय मुसलमानों के मन में उपजी थी। गंगौली में बढ़ रहे विभाजन को लेकर लेखक चिंतित है।  गाँव में शिया -सुन्नी -हिंदुओं की  संख्या बढ़ रही है ,गंगौली वालों की  संख्या कम होती जा रही है। लेखक अपने गाँव के बिखरते ताने-बाने से चिंतित है।  इस उपन्यास में लेखक ने परंपरा हुए बीच  में भूमिका लिखी है। यह महज़ भूमिका नहीं है ,लेखक कि अपने ज़मीं के प्रति गहरी संवेदना भी  है. यह पूरी भूमिका इस उपन्यास की  आत्मा है। '' गंगौली से मेरा सम्बन्ध अटूट है। वह एक गाँव ही नहीं है,वह मेरा घर भी है।  घर! यह शब्द दुनिया की हर बोली और भाषा में है और हर बोली और भाषा में यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है।  इसलिए मैं उस बात को फिर दुहराता हूँ। क्योंकि वह केवल एक गाँव  ही नहीं है। क्योंकि वह मेरा घर भी है। ''4 . यही बात वे अपने पात्रों  से भी कहलवाते हैं. तन्नू नामक पात्र कहता है -'' गंगौली मेरा गाँव है। मक्का मेरा शहर नहीं है। यह मेरा घर है और काबा अल्लाह मियां का। खुदा को  अगर अपने घर से प्यार है तो क्या वह मज़ल्ला यह नहीं समझ सकता कि हमें  अपने घर से उतना ही प्यार हो सकता है। '' 5 यह लेखक के भीतर का दर्द  था जो रह-रह के इस उपन्यास के पात्रों के माध्यम से व्यक्त हो रहा था।
  इस उपन्यास में जहाँ जहाँ बंटवारे की बात आयी है ,पात्रों का अंतर्द्वंद भी स्पष्ट हुआ है। मुसलमानों के अलग मुल्क की  बात आती है तो अपनी ज़मीन का मोह जाग उठता है। बार बार सवाल उठता है कि  अलग राष्ट्र बनने  की  स्थिति में भारत में रह रहे मुसलमानों का क्या होगा। राही मासूम रज़ा ने 1947 में वापस जाकर इन चीजों को समझने का प्रयास किया है। इस पूरी वैचारिक प्रक्रिया को उस समय में वापस जाकर ही समझा जा सकता था। अलग मुस्लिम राष्ट्र की  मांग के बावजूद गंगौली की  समरसता का चित्र वे कुछ इस प्रकार खींचते हैं -'' रजिये का जनाज़ा निकला तो ताबूत फुन्नन मियां,ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह ,झींगुरिया और अनवारुल हसन के कन्धों पर था और ठाकुर कुंवरपाल सिंह का सारा परिवार ज़नाजे के साथ। '' 6 दो राष्ट्रों के बीच  गंगौली के निवासी पिस  रहे हैं। समझ नही आ रहा गाँव वालों के कि पाकिस्तान बना तो गंगौली किस तरफ रहेगा। फुन्नन मियां सिर्फ़  इस्लामी राष्ट्र के नाम पर पाकिस्तान ज़िंदाबाद नहीं कहना चाहते क्योंकि उनकी जड़ें  गंगौली के ज़मीन  में धंसी हैं। फुन्नन मियां का चरित्र ऐसे ही  स्थानों पर उभर कर आया है। हम्माद और पृथ्वीपाल सिंह के विवाद में वे पृथ्वीपाल सिंह के साथ खड़े होते हैं और कहते हैं ''पट्टीदारी का मतलब एहे  है का कि हम्माद जुअन आफत चाहे जोत लें और सब उन्हई  का साथ दें! ई  हम  से ना  होई .''6 पृथ्वीपाल सिंह का साथ देने पर उन्हें पट्टीवालों ने टाट बाहर  कर दिया था। ये वही फुन्नन मियां हैं जिनका बेटा भारत छोडो आंदोलन में गोली का शिकार हुआ था। वे पाकिस्तान के हिमायती नही बल्कि वे 'पाकिस्तान-आकिस्तान पेट भरन का खेल है ' कहकर अपना पक्ष साफ रखते हैं।
आधा गाँव में लेखक ने दर्शाया है कि गाँव के मुसलमान और हिन्दू में खास फर्क न था। वे एक-दूसरे के समारोहों और सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल हुआ करते थे। आज़ादी की  लड़ाई में भी दोनों ने बराबर भागीदारी की थी। कुछ धार्मिक नेताओं और राजनीतिज्ञों ने धर्म के आधार पर दोनों में विभेद पैदा किया तथा स्वार्थ सिद्धि में लगे रहे। आज़ादी के बाद भारत में रह रहे मुसलमानों के साथ अस्तित्व का संकट पैदा होने लगा। जमींदारी प्रथा ख़त्म होने से एक तरफ आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ तो वहीँ दूसरी तरफ पाकिस्तान बनने के बाद वे भारत में अपनों के बीच  पराये हो गये।
                  राही मासूम रज़ा इस उपन्यास के जरिये अपने समय और समाज की जीवंत  तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। इतिहास में अपनी भागीदारी तलाशता ये उपन्यास हिंदी साहित्य की  बड़ी उपलब्धि है। आधा गाँव में वस्तुगत चिंतायें बेहद संजीदगी के साथ व्यक्त की  गयी हैं।  राही मासूम रज़ा हिंदी के  ऐसे उपन्यासकार  जिन्होंने साहित्य के माध्यम से सांप्रदायिक सदभाव को बल दिया।  उन्होंने कुल आठ उपन्यास लिखे और सभी में गंगा-जमुना तहज़ीब के प्रतीक को पुष्ट किया। प्रभाकर माचवे ने लिखा है कि यदि समस्त भारतीय भाषाओँ के साहित्य में से केवल दस उपन्यास  जाएँ तो हिंदी का प्रतिनिधित्व केवल 'आधा गाँव ' ही कर सकता है। आधा गाँव प्रेमचंद से एक कदम आगे की चीज़ है।  राही मासूम रज़ा ने देश विभाजन का दर्द झेल था। उन्हें सदैव इस बात का एहसास था कि हिन्दू -मुस्लमान के सौहार्द के बिना देश का समुचित विकास सम्भव नहीं है।



1-- पेज -11 आधा गाँव
2-- पेज -11 आधा गाँव
3-- पेज - 155 आधा गाँव
4-- पेज - 290 आधा गाँव
5-- पेज  - 250 आधा गाँव6-- पेज - 157 आधा गाँव

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

शानदार उपन्यास कौमी एकता का गह्वर है

Unknown ने कहा…

शानदार उपन्यास कौमी एकता का गह्वर है

RKPandey ने कहा…

🙏🙏🙏🙏