बुधवार, 25 जुलाई 2012

सुनो लोकतंत्र

आस्था एक ' खतरनाक ' शब्द है
जो हर लेती है  सोचने-समझने की शक्ति
और तुम कहते हो हम
संसद के प्रति आस्थावान हैं


सुनो लोकतंत्र

वे जो ' अगुआ ' बन बैठे हैं
लुटियन ज़ोन में
उनसे कह दो
कि मेरे भीतर चेतना शेष है अभी
कुछ भगत सिंह शेष है अभी
कुछ क्रांति शेष है अभी

सुनो लोकतंत्र

तुम्हारे सामने नतमस्तक हूँ मैं ..
और तुम...
फरेब - ए - नज़र हो
तुम जीवित हो
क्योकि हम चुप हैं

( लिखी जा रही कविता का एक अंश )

सोमवार, 2 जुलाई 2012

हाथों से कुछ छूट गयी सी लगती है
जिंदगी हमसे रूठ गयी सी लगती है


यूँ तो हँस लेते हैं हम भी महफ़िल में 
साँसे लेकिन  टूट गयी सी लगती हैं 


खो जाना है  एक  दिन   यूँ ही दरिया   में 
पानी पर  तकदीर लिखी सी लगती है  


छू लेते हम भी आसमान एक दिन
पर पावों  में  जंजीर बंधी सी  लगती है