जो बो रहे हैं ,वही काटेंगे
क्या यही बच्चो में विरासत बाटेंगे
पीने को पानी ,न होगा खाने को निवाला
सूरज की तपिश से नदिया हो जाएँगी नाला
धरती के पाँव में फटी होगी बेवाई
बंजर होंगे खेत ,न होगी बुवाई
रेत के समंदर और धूप के थपेडे होंगे
आगे जाके बच्चो को फास्टफूड ही लेने होंगे
पशु-पक्षियों से वीरान हो जायेगी धरती
जितनी ही आमद होगी उतनी ही बढेगी कड़की
3 टिप्पणियां:
यथार्थ
कविता तो अच्छी है... लेकिन डरती बहोत है...
भगवन करे ऐसा दिन कभी न आये...
www.nayikalam.blogspot.com
एक बात और... कविता की दो लाइनों का एक क बाद एक आना मतलब
आगे जाके बच्चो को फास्टफूड ही लेने होंगे
पशु-पक्षियों से वीरान हो जायेगी धरती
ये लाइनें इतनी पास न होकर दूर-दूर होती तो बच्चे शायद मांसाहार की जिद न करते...
शुभकामनायें....
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