बुधवार, 22 जुलाई 2009

विरासत

जो बो रहे हैं ,वही काटेंगे

क्या यही बच्चो में विरासत बाटेंगे

पीने को पानी ,न होगा खाने को निवाला

सूरज की तपिश से नदिया हो जाएँगी नाला

धरती के पाँव में फटी होगी बेवाई

बंजर होंगे खेत ,न होगी बुवाई

रेत के समंदर और धूप के थपेडे होंगे

आगे जाके बच्चो को फास्टफूड ही लेने होंगे

पशु-पक्षियों से वीरान हो जायेगी धरती

जितनी ही आमद होगी उतनी ही बढेगी कड़की

3 टिप्‍पणियां:

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

यथार्थ

Unknown ने कहा…

कविता तो अच्छी है... लेकिन डरती बहोत है...
भगवन करे ऐसा दिन कभी न आये...
www.nayikalam.blogspot.com

Unknown ने कहा…

एक बात और... कविता की दो लाइनों का एक क बाद एक आना मतलब
आगे जाके बच्चो को फास्टफूड ही लेने होंगे
पशु-पक्षियों से वीरान हो जायेगी धरती

ये लाइनें इतनी पास न होकर दूर-दूर होती तो बच्चे शायद मांसाहार की जिद न करते...
शुभकामनायें....