आज पदार्पण हुआ /एक गहन समस्या का मेरे जीवन में
रह गई दिल की तमन्नाएं/ दबी ही एक कोने में ,
बात शादी की थी /नही कोई ऐसी-वैसी
हाय ! ये समाज की विडम्बना है कैसी ,
दहेज़ के दावानल ने मुझे भी जलाया
पाकर मुझे अकेले में/ मेरी सास ने समझाया
अगर नही लाओगी/ रुपये लाख-दो लाख
तुम्हारा शरीर जल के हो जाएगा राख ...
सामर्थ्य था मेरे पिता में जितना/ उन्होंने दिया
बेच कर घर-बार अपना / मेरे घर को भर दिया
पर भाग्य को था शायद कुछ और ही मंजूर
मैंने ख़ुद को कर दिया आग के हवाले
अब समाज चाहे जितने लगाये नारे
कहा प्रभु से ....
अब न मानव बनाना
यदि दिया मानव जीवन तो
किसी गरीब की बेटी न बनाना .
2 टिप्पणियां:
कुछ भी कर जाना अपने को आग से कभी मत जलाना
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है....सलाम आपकी लेखनी को....
समाज का सबसे बदनुमा दाग है दहेज़... और इसे पोषित करने वाला समाज भी. ...
मगर ये अच्छी बात है की इधर कुछ सालों में इसके खिलाफ आवाज बुलंद हुई है...
मंजर भोपाली ने बहू जलाने वालो पर कहा है...
फिर बहू जलाने का, हक़ तुम्हे पहुँचता है...
पहले अपने आँगन में, बेटियाँ जला देना......
यूं ही लिखते रहिये....कभी तो इस गूंगे, बहरे और अंधे सामाज की चेतना जागेगी.....
उम्मीद एक जिन्दा शब्द है... आने वाली नस्ल शायद इस बुराई से मुक्त हो सके ऐसी आशा है...
कभी वक्त मिले तो इस ब्लॉग पर भी तसरीफ ले आइयेगा...
http:balsajag.blogspot.com
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