शनिवार, 2 जून 2012

कठिन समय

ये कविता का कठिन समय है 
और 
कविता 
अपने कठिन समय  में
उतनी ही लिखी और पढ़ी जा रही है 
जितनी पहले हुआ करती थी .

लोगों  ने  इसे कठिन  समय 
साबित करना शुरू कर दिया है .


वे शब्दों की तरफदारी में 
व्यस्त हैं अपने 
कवितापन को वे दीमक की तरह 
चाट जायेंगे ..
हसेंगे  और कहेंगे ..
कि हमने घोषित कर दिया था पहले ही
' मरना तो तय था '

 और फिर  एक अट्टहास होगा 
समूहगान की तरह 

मगर ठीक उसी वक़्त 
कुछ लोग लड़ रहे होंगे 
कविता को बचाने के लिए 
 अस्मिता कि लड़ाई में 
शब्द दर शब्द 
अपनी अर्थवत्ता के लिए 
जूझ रहा होगा 
उस अघोषित लड़ाई से 
जो उसके बचे रहने का 
सबूत होगी इतिहास में ......

शब्दों की अर्थवत्ता बची रहेगी  
कविता अपने कठिन समय के बावजूद 
भी बची रहेगी .
 

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