मंगलवार, 15 जून 2021

चिराग तले अँधेरा

 राजनीति में जो भी सक्रिय है, वह कभी न कभी सत्ता में आने की आशा पाले रखता है। यह आशा जब टूटती दिखती है तो हलचल पैदा करती है। बीते दिनों जो राजनीतिक उथल-पुथल हुआ , उसे सामान्य भाषा में ‘मौकापरस्ती’ बोलते हैं। एलजेपी के पाँच सांसदों ने चिराग पासवान से किनारा कर लिया। यह कैसे हुआ कि चिराग को इसकी भनक तक न लगी। यह दर्शाता है कि वे अपनी ही पार्टी में सामंजस्य स्थापित न कर सके। रामविलास पासवान के जाने के बाद एलजेपी का भविष्य संदिग्ध दिख रहा। ऐसा नहीं कि पासवान की इकलौती पार्टी इस दायरे में है। सभी क्षेत्रीय पार्टियों को अपनी प्रासंगिकता बचाये रखने के लिए महत्वपूर्ण पदों को अपने परिवार से इतर लोगों को मौका देना होगा। अन्यथा जैसे ही पार्टी सत्ता से दूर होगी या फिर पार्टी के मुखिया जीवन-विराम लेंगे, पार्टी में विद्रोह स्वाभाविक है। राजनीति का यह ‘नरेंद्र मोदी’ युग है। संभव हो या न हो पर भारतीय राजनीति में आगे का भविष्य मोदी के हाथों में ही दिख रहा। विपक्ष अधमरा हो चुका है। कांग्रेस के नेता शीर्ष नेतृत्व के भीतरमार से त्रस्त हैं। राहुल गांधी के रहते हुए युवा नेताओं का भविष्य खतरे में है। सिंधिया, जितिन प्रसाद के बाद निगाह सचिन पायलट पर टिकी है। पंजाब, राजस्थान से रह-रह कर धुँआ उठता दिख रहा , जिसे सुलझाने में कांग्रेस असक्षम है।
उधर बसपा से भी टूट की खबर आ रही है। हाल की खबरों से पता चलता है कि प्रवासी बनकर आये कुछ भाजपा विधायक टीएमसी में लौट जाने को आतुर हैं।
सत्ता से दूरी पार्टियों में बिखराव का कारण है। मौकापरस्त लोग सत्ता सम्पन्न होने को अधीर हैं।

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